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________________ श्रमण-धर्म : १६९ नही जिसमे उसके निमित्त किसी प्रकार की हिंसा हुई हो अथवा होने की सभावना हो । आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम चूला के पिण्डैषणा नामक प्रथम अध्ययन में आहारविपयक विविध प्रकार की हिंसा की सभावनाओ का विचार किया गया है। उसमे बतलाया गया है कि जिसमे प्राण होने की तनिक भी शका अथवा संभावना हो वैसा आहार भिक्षु या भिक्षुणी ग्रहण न करे । कदाचित् गलती से सचित्त आहार पात्र मे आ भी जाय तो उसका यतनापूर्वक परित्याग करे। जव सचित्त और अचित्त का पृथक्करण शक्य न हो तब समग्न आहार का त्याग कर दे। जिसके पूर्ण रूप से अचित्त होने का निश्चय हो वही वस्तु ग्रहण करे एवं उपयोग मे ले । ___यदि गृहस्थ ने मुनि के निमित्त हिंसा कर के आहार तैयार किया हो अथवा किसी से छीन कर, उधार लेकर, चोरी करके या अन्य अवैध उपाय से प्राप्त किया हो तो उसे ग्रहण नही करना चाहिए। किसी अन्य को दानादि के रूप मे देने के लिए बनाया हुया आहार भी ग्रहण करना निषिद्ध है। उत्सवादि अवसरों पर जब तक अन्य याचको को दान देना समाप्त न हो जाय तव तक श्रमण-श्रमणी को भिक्षा नही लेनी चाहिए । जहां सखडि अर्थात् सामूहिक भोजन-भोज होता हो वहाँ श्रमण-श्रमणी को आहारार्थ नही जाना चाहिए। ऐसे स्थानो पर भिक्षार्थ जाने पर अनेक दोष लगते है जिससे सयम की विराधना होती है। रसोई वन रही हो अथवा कोई अन्य कार्य हो रहा हो तो
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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