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________________ १६६ : जैन आचार प्रारभ के चार एवं अन्त के दो - ये छः खाने-पीने के काम मे आते हैं अतः इन्हे आहार के अन्तर्गत समाविष्ट किया जा सकता है । इन पदार्थों मे तत्कालीन स्मृतिमूलक स्वाध्याय की पद्धति के कारण पुस्तकादि का समावेश नही किया गया है । ये पदार्थ स्थविरकल्पिक अर्थात् सचेलक साधुओ की दृष्टि से है । जिनकल्पित अर्थात् अचेलक साधुओ की दृष्टि से वस्त्रादि अकल्प्य पदार्थों की कमी कर लेनी चाहिए । आहार क्यों ? उत्तराध्ययन सूत्र के सामाचारी नामक छब्बीसवे अध्ययन मे आहार ग्रहण करने के छ कारण बतलाये गये है. १. वेदना अर्थात् क्षुधा की शान्ति के लिए, २. वैयावृत्य अर्थात् आचार्यादि की सेवा के लिए, ३ ईर्यापथ अर्थात् मार्ग मे गमनागमन की निर्दोष प्रवृत्ति के लिए, ४ संयम अर्थात् मुनिधर्म की रक्षा के लिए, ५ प्राणप्रत्यय अर्थात् जीवनरक्षा के लिए, ६ धर्मचिन्ता अर्थात् स्वाध्यायादि के लिए। इनमे से किसी भी कारण की उपस्थिति मे मुनि को आहार की गवेपणा करनी चाहिए । इन कारणो मे सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण, मुख्य एवं केन्द्रीय कारण सयम-रक्षा का अर्थात् मुनिव्रत की सुरक्षा का है । मुनि के लिए आहार इसीलिए ग्रहणीय बताया गया है कि इससे उसके व्रतपालन मे आवश्यक सहायता मिलती है । जब आहार का यह प्रयोजन समाप्त हो जाता है अर्थात् आहार सयम की साधना मे किसी प्रकार की सहायता नही कर सकता तव मुनि आहार का
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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