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________________ श्रमण-धर्म : १६३ लिए निम्नोक्त पांच प्रकार के धागे कल्प्य हैं : औणिक, औष्ट्रिक, सानक, वच्चकचिप्पक और मुजचिप्पक । औणिक अर्थात् ऊन के, औष्ट्रिक अर्थात् ऊंट के वालो के, सानक अर्थात् सन की छाल के, वच्चकचिप्पक अर्थात् तृणविशेप की कुट्टी के और मुंजचिप्पक अर्थात् मूज की कुट्टी के । ___श्रमण-श्रमणी कितने एव किस प्रकार के वस्त्रो का उपयोग कर सकते हैं, इसका विचार करने के बाद यह सोचना आवश्यक है कि उन्हे वस्त्र किस प्रकार प्राप्त करने चाहिए ? वस्त्र की गवेषणा: आचाराग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम चूला के पाचवे अध्ययन में यह बताया है कि वस्त्र की गवेपणा के लिए अर्ध योजन से अधिक नही जाना चाहिए। वस्त्र की गवेपणा करते समय आहार की गवेषणा के समान पूरी सावधानी रखनी चाहिए। अपने निमित्त खरीदा गया, धोया गया आदि दोषो से युक्त वस्त्र ग्रहण नही करना चाहिए। बहुमूल्य वस्त्र की न याचना करनी चाहिए, न प्राप्त होने पर ग्रहण ही करना चाहिए । हिंसादि दोपों से दूषित वस्त्र की तनिक भी चाह नही करनी चाहिए । निर्दोप एव सादे वस्त्र की कामना, याचना एव ग्रहणता श्रमण-श्रमणियो के लिए कल्प्य है। वस्त्र को धोना तथा रंगना निपिद्ध है । भिक्षु अन्य भिक्षु को दिया हुआ वस्त्र वापिस नही लेते । अत. अन्य के वस्त्र को अपना बना लेने की भावना से किसी श्रमण-श्रमणी को अन्य श्रमण-श्रमणी से वस्त्र नही मागना चाहिए। विहार करते
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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