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________________ श्रमण-धर्म : १५३ उपधानश्रुत के प्रथम उद्देश की पहली ही गाथा मे बतलाया गया है कि महावीर प्रव्रज्या ग्रहण कर तुरन्त ही विहार (पदयात्रा) के लिए चल पडे। आगे की गाथाओ मे कहा गया है कि उस समय उन्होने प्रतिज्ञा की कि मेरे पास जो यह एक वस्त्र है इससे मैं अपने शरीर का आच्छादन नहीं करूंगा। इतना ही नही, कुछ समय बाद ( तेरह महीने वाद) उन्होने उस वस्त्र का भी त्याग कर दिया एव सर्वथा अचेल होकर भ्रमण करने लगे । तब फिर दीक्षा के समय महावीर ने अपने पास जो वस्त्र (एक शाटक) रखा वह किसलिए? वह वस्त्र संभवत प्रव्रज्या की तद्देशीय प्रणाली के अनुसार वे अपने कधे पर रखे रहे अथवा उससे पोछने आदि का काम लेते रहे। चाहे कुछ भी हुआ हो, इतना निश्चित है कि महावीर प्रव्रज्या लेने के साथ ही अचेल अर्थात् नग्न हो गए तथा मृत्युपर्यन्त नग्न ही रहे एवं किसी भी रूप में अपने शरीर के लिए वस्त्र का उपयोग नहीं किया। दीक्षा के पूर्व शरीर पर चंदनादि का विलेपन किया गया था, अतः महावीर पर चार मास से भी अधिक समय तक स्थानस्थान पर नाना प्रकार के जीव-जन्तुओ का आक्रमण होता रहा एवं उनके शरीर को विविध प्रकार से कष्ट पहुंचता रहा। वे चलत समय पुरुष-प्रमाण मार्ग का अवलोकन करते एव सावधानी पूर्वक चलते । उन्हे देखकर भयभीत हुए वालक उन्हें मार-मार कर आक्रन्दन करते । मार्ग मे अभिवादन होने पर अथवा मार पड़ने पर वे समान भाव से रहते व किसी से कुछ नही कहते । उन्हें पाख्यान, नृत्य, गीत, दण्डयुद्ध, मुष्टियुद्ध आदि मे कोई
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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