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________________ श्रमण-धर्म : १४५ जिस प्रकार मुनि के लिए तीर्थंकर-स्तव आवश्यक है उसी प्रकार गुरुस्तव भी आवश्यक है । गुरु-स्तव को आवश्यक सूत्र मे वंदन कहा गया है। तीर्थकर के बाद यदि वदन करने योग्य है तो वह गुरु है क्योकि गुरु अहिंसा आदि की उत्कृष्ट आराधना करने के कारण शिष्य के लिए साक्षात् आदर्ग का कार्य करता है। उससे उसे प्रत्यक्ष प्रेरणा प्राप्त होती है। उसके प्रति सम्मान होने पर उसके गुणो के प्रति सम्मान होता है। तीर्थकर के वाद सद्धर्म का उपदेश देने वाला गुरु ही होता है। गुरु ज्ञान व चारित्र दोनो मे वडा होता है अत. वन्दन योग्य है। गुरुदेव को वन्दन करने का अर्थ होता है गुरुदेव का उत्कीर्तन व अभिवादन करना। वाणी से उत्कीर्तन अर्थात् स्तवन किया जाता है तथा शरीर से अभिवादन अर्थात् प्रणाम । गुरु को वन्दन इसलिए किया जाता है कि वह गुणो मे गुरु अर्थात् भारी होता है। गुणहीन व्यक्ति को अवन्दनीय कहा गया है। जो गुणहीन अर्थात् अवद्य को बदन करता है उसके कर्मों की निर्जरा नही होती, उसके सयम का पोषण नहीं होता। इस प्रकार के वन्दन से असयम का अनुमोदन, अनाचार का समर्थन, दोषो का पोषण और पाप-कर्म का बन्धन होता है। इस प्रकार का वन्दन केवल कायक्लेश है। अवंद्य को वन्दन करने मे वन्दन करने वाले एव वन्दन कराने वाले दोनो का पतन होता है । वन्दन आवश्यक का समुचित पालन करने से विनय की प्राप्ति होती है, अहभाव की समाप्ति होती है, उत्कृष्ट आदर्शों का ज्ञान होता है, गुरुजनो का सम्मान होता है, तीर्थंकरो की आज्ञा की अनुपालना और श्रुतधर्म की आराधना होती है।
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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