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________________ श्रमण-धर्म . १३७ पूर्वक बैठने, उठने, चलने, सोने, खाने, पीने, बोलने से पापकर्म बंधता है। इसलिए भिक्षु को समस्त क्रिया यतनापूर्वक करनी चाहिए। जो जीव और अजीव को जानता है, वस्तुत. वही सयम को जानता है। क्योकि जीव और अजीव को जानने पर ही सयमी जीवों की रक्षा कर सकता है। इसलिए कहा गया है कि पहले ज्ञान है, फिर दया । जो सयमी ज्ञानपूर्वक दया का आचरण करता है वही वस्तुत. दयाधर्म का पालन करता है। अज्ञानी न पुण्य-पाप को समझ सकता है, न धर्म-अधर्म को जान सकता है, न हिंसा-अहिंसा का विवेक कर सकता है। आचाराग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की तृतीय चूला मे पाच महाव्रतो की पचीस भावनाएं बताई गई हैं जिनके पालन से महाव्रतो की रक्षा होती है। प्राणातिपात-विरमण की पाच भावनाएं ये हैं . १. ईर्याविषयक समिति-गमनागमनसम्बन्धी सावधानी,२. मन की अपापकता-मानसिक विकाररहितता,३ वचन की अपापकता-वाणी की विशुद्धता, ४. भाण्डोपकरणविषयक समिति-पात्रादि उपकरण-सम्बन्धी सावधानी, ५. भक्त-पानविषयक आलोकिकता-खान-पानसम्बन्धी सचेतता। ये एवं इसी प्रकार की अन्य प्रशस्त भावनाएँ अहिंसावत को सुदृढ एवं सुरक्षित करती हैं। जिस प्रकार सर्वविरत श्रमण जीवकाय की हिंसा का सर्वथा त्याग करता है उसी प्रकार वह मृपावाद से भी सर्वथा विरत होता है। असत्य हिंसादि दोषो का जनक है, यह समझकर वह कदापि असत्य वचन का प्रयोग नहीं करता। वह हमेशा निर्दोप,
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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