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________________ १२२ : जैन आचार है । सल्लेखनापूर्वक होने वाली मृत्यु निष्कपायमरण, समाधिमरण एव पण्डितमरण है जवकि आत्महत्या सकपायमरण, वालमरण एवं अज्ञानमरण है । सल्लेखना आध्यात्मिक वीरता-निर्भीकता है जवकि आत्महत्या निराशामय कायरता-भीरता है। आत्महत्या करनेवाला व्यक्ति स्थूल जीवन की निराशा से ऊब कर मृत्युमुख मे प्रवेश करता है जबकि संथारा करनेवाला आराधक आध्यात्मिक गुणो की रक्षा के लिए वीरतापूर्वक मृत्यु का आह्वान करता है। उसमे स्थूल जीवन के लोभ से आध्यात्मिक गुणो से च्युत होकर अर्थात् अपने व्रतविशेप का भगकर मृत्यु से भयभीत होने की कायरता नही होती और न स्थल जीवन की निराशाओं से हताश होकर मृत्युमुख मे प्रवेश करने की पामरता ही होती है। वह जितना जीवन से निर्भय होता है उतना ही मृत्यु से निर्भय होता है एव जितना मृत्यु से निर्भीक रहता है उतना ही जीवन से निर्भीक रहता है। उसके लिए जीवन व मत्यु दोनों समानभाव से उपादेय होते हैं । वह सुख, सत्कार आदि मिलने पर अधिक समय तक जीवित रहने की कामना नही करता एव दु.ख, दुत्कार आदि मिलने पर शीघ्र मरने की इच्छा नहीं करता । कषायादि को कृश करता हुआ स्वाभाविकतया मृत्यु आने पर उसका सहर्ष स्वागत करता है एवं उत्कृष्ट आत्मपरिणामो के साथ अपनी जीवनलीला समाप्त करता है। इस प्रकार के मरण को आदर्श मरण न कहा जाय तो क्या कहा जाय ? इससे बढकर सात्त्विक एव शान्तिपूर्ण मृत्यु कौनसी हो सकती है ? इससे अधिक व्यक्ति के धैर्य एव विचारशीलता की क्या परीक्षा हो सकती है ? इसमे किसी
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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