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________________ श्रावकाचार : ११९ आध्यात्मिक साधना का पोषण होता है। इससे दाता का जीवन भी उपयुक्त दिशा में विकसित होता है। जिस प्रकार निर्ग्रन्थ अतिथि को दान देना श्रमणोपासक का कर्तव्य है उसो प्रकार नि.स्वार्थ भाव से अन्य अतिथियों अथवा व्यक्तियों की समुचित मदद करना, दीन-दुखियों की यथोचित सहायता करना भी श्रावक का धर्म है। इससे करुणावृत्ति का पोषण होता है जो अहिंसाधर्म के उपयुक्त विकास एवं प्रसार के लिए आवश्यक है। अतिथिसविभाग व्रत के निम्नलिखित पाँच अतिचार बताये गये हैं जो मुख्यतया आहार से सम्बन्धित हैं १. सचित्तनिक्षेप, २. सचित्तपिधान, ३. कालातिक्रम, ४. परव्यपदेश, ५. मात्सर्य । न देने की भावना से अर्थात् कपटपूर्वक साधु को देने योग्य आहारादि को सचित्त-सचेतन वनस्पति आदि पर रखना सचित्तनिक्षेप है क्योकि निर्ग्रन्थ श्रमण ऐसा आहारादि ग्रहण नही करते। इसी प्रकार आहारादि को सचित्त वस्तु से ढकना सचित्तपिधान है। अतिथि को कुछ न देना पड़े, इस भावना से अर्थात् कपटपूर्वक भिक्षा के उचित समय से पूर्व अथवा पश्चात् भिक्षुक से आहारादि ग्रहण करने की प्रार्थना करना कालातिक्रम अतिचार है। न देने की भावना से अपनी वस्तु को परायी कहना अथवा परायी वस्तु देकर अपनी वस्तु बचा लेना अथवा अपनी वस्तु स्वय न देकर दूसरे से दिलवाना परव्यपदेश है। सहजभाव से अर्थात् श्रद्धापूर्वक दान न देते हुए दूसरे के दानगुण की ईर्ष्या से दान देना मात्सर्य अतिचार है। सल्लेखना अथवा संथारा : जीवन के अन्तिम समय मे अर्थात् मृत्यु आने के समय तप
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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