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________________ १०८ : जैन आचार । अथवा हरे सम्बन्धी हैं । जो सचित वस्तु मर्यादा के अन्दर नही है उसका भूल से आहार करने पर सचित्ताहार दोष लगता है । त्यक्त सचित्त वस्तु से संसक्त अर्थात् लगी हुई अचित्त वस्तु का आहार करने पर सचित्त-प्रतिबद्धाहार दोष लगता है जैसे वृक्ष से लगा हुआ गोंद, गुठली सहित ग्राम, पिण्डखजूर आदि खाना | सचित्त वस्तु का त्याग होने पर बिना अग्नि के पके आहार का सेवन करने पर अपक्वाहार दोष लगता है अर्थात् कच्चे शाक, फल आदि का त्याग होने पर बिना पके फल आदि का सेवन करने पर अपक्वाहार अतिचार लगता है । इसी प्रकार अर्धपक्व आहार का सेवन करने पर दुष्पक्वाहार दोष लगता है । जो वस्तु खाने मे कम आए तथा फेकने मे अधिक जाए अर्थात् खाने के लिये ठीक तरह से तैयार न हुई हो ऐसी वस्तु का सेवन करने पर तुच्छौषधिभक्षण अतिचार लगता है ।। उपभोगपरिभोग - परिमाण व्रत के आराधक को इन अतिचारो से बचना चाहिए। अतिचार सेवन का प्रसंग उपस्थित होने पर आलोचना एवं प्रतिक्रमण रूप पश्चात्ताप अर्थात् प्रायश्चित्त करना चाहिए । उपभोग एव परिभोग की वस्तुओ की प्राप्ति के लिए किसी न किसी प्रकार का कर्म अर्थात् व्यापार-व्यवसाय-उद्योग - धन्धा करना ही पडता है । जिस व्यवसाय मे महारम्भ होता हो— स्थूल हिसा होती हो-अधिक पाप होता हो वह व्यवसाय श्रावक के लिए निषिद्ध है । इस प्रकार के व्यवसायो से महान् अशुभ कर्मों का उपार्जन होता है अत. इन्हें शास्त्रकारो ने कर्मादान
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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