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________________ १०६ : जैन आचार दिशा-परिमाण-अतिक्रमण है। नीची दिशा के परिमाण का उल्लंघन करने पर जो दोष लगता है उसे अधोदिशा-परिमाणअतिक्रमण कहते हैं। ऊँची व नीची दिशाओं के अतिरिक्त पूर्वादि समस्त दिशाओं के परिमाण का उल्लंघन करना तिर्यदिशापरिमाण-अतिक्रमण है। एक दिशा के परिमाण का अमुक अंश दूसरी दिशा के परिमाण मे मिला देना व इस प्रकार मनमाने ढग से क्षेत्र की मर्यादा बढा लेनो क्षेत्रवृद्धि अतिचार है। सीमा का स्मरण न रहने पर लगने वाले दोष अर्थात् अतिचार का नाम स्मृत्यन्तर्धा है। 'मैने सौ योजन की मर्यादा का व्रत ग्रहण किया है या पचास योजन की मर्यादा का' इस प्रकार का सन्देह होने पर अथवा स्मरण न होने पर पचास योजन से आगे न जाना ही अनुमत है, चाहे वास्तव मे मर्यादा सौ योजन की ही क्यो न हो । यदि अज्ञान अथवा विस्मृति से क्षेत्र के परिमाण का उल्लंघन हुआ हो तो वापिस लौट आना चाहिए, मालूम होने पर आगे न जाना चाहिए, न किसी को भेजना ही चाहिए। वैसे ही कोई गया हो तो उसके द्वारा प्राप्त वस्तु का उपयोग भी नही करना चाहिए । विस्मृति के कारण खुद गया हो व कोई वस्तु प्राप्त हुई हो तो उसका भी त्याग कर देना चाहिए। २. उपभोगपरिभोग-परिमाण-जो वस्तु एक बार उपयोग मे आती है उसे उपभोग कहते हैं। वार-बार काम मे आने वाली वस्तु को परिभोग कहा जाता है। उपभोग एवं परिभोग की मर्यादा निश्चित करना उपभोगपरिभोग-परिमाण व्रत है। इस व्रत से अहिंसा एवं सतोष की रक्षा होती है । इससे जीवन मे
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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