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________________ ९८ : जैन आचार आदि की समकक्ष भाषा में इसे स्थूल मैथुन-विरमण कह सकते हैं। इसका पालन दो करण व तीन योगपूर्वक आवश्यक न माना जाकर साधारणतया एक करण व तीन योगपूर्वक ही जरूरी माना गया है। किसी भी व्रत के सम्यक पालन के.लिए शील अर्थात् सदाचार आवश्यक है । श्रावक पूर्ण ब्रह्मचारी नही होता अपितु आंशिक ब्रह्मचारी होता है। उसकी शीलमर्यादा स्वदारसंतोष तक होती है । स्वदारसंतोप का अर्थ है समाजसम्मत अथवा कानूनसम्मत विवाहपद्धति द्वारा पत्तीरूप से गृहीत स्त्री के साथ मैथुन-सेवन की मर्यादा। इस परिभापा से स्पष्ट है कि यह व्रत विवाहित व्यक्ति के लिए है न कि अविवाहित व्यक्ति के लिए। किसी का किसी कारण से चाहते हुए तथा विवाहयोग्य होते हुए भी विवाह अथवा पुनर्विवाह न हुआ हो तथा होने की सभावना भी न हो किन्तु वह मैथुन का सर्वथा त्याग न कर सकता हो तो उसके लिए स्थूल मैथुन-विरमण व्रत की क्या व्यवस्था है ? दूसरे शब्दों मे जो व्यक्ति स्वदारसंतोष की परिभाषा में नही आता उसके लिए चतुर्थ अणुव्रत का क्या रूप है ? इसका कोई स्पष्ट समाधान अथवा विधान शास्त्रों मे दृष्टिगोचर नहीं होता। स्थूल मैथुन-विरमण के पीछे जो विधेयात्मक भावना रही हुई है वह है मर्यादित मैथुन-सेवन की। इस दृष्टि से यदि ऐसा अपवादरूप व्यक्ति विवशता के कारण सार्वजनिक मर्यादा का ध्यान रखते हुए किसी विवाहेतर पद्धति से एक निश्चित सीमा बाधकर अपनी मैथुनेच्छा पूरी करता है तो क्या उसके स्थूल मैथुन-विरमण व्रत का भंग होता है ?
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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