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________________ श्रावकाचार : ९५ ३. स्थूल अदत्तादान-विरमण-अहिंसा व सत्य के सम्यक् पालन के लिए अचौर्य अर्थात् अदत्तादान-विरमण आवश्यक है। श्रावक के लिए जिस प्रकार का अचौर्य अथवा अस्तेय आवश्यक माना गया है उसे स्थूल अदत्तादान-विरमण कहते है। साधु के लिए तो विना अनुमति के दतशोधनार्थ तृण उठाना भी वर्जित है अर्थात् वह बिना दी हुई कोई भी वस्तु ग्रहण नही करता । श्रावक के लिए ऐसा आवश्यक नहीं माना गया है। वह सूक्ष्म अदत्तादान का त्याग न भी करे तथापि उसे स्थूल अदत्तादान का त्याग तो करना ही पड़ता है । अदत्तादान का शब्दार्थ है बिना दो हुई वस्तु ( अदत्त ) का ग्रहण ( आदान)। इसे सामान्य भाषा मे चोरी कहते हैं। श्रावक के लिए ऐसी चोरी का त्याग अनिवार्य है जिससे राजदण्ड भोगना पड़े, सामाज मे अविश्वास उत्पन्न हो, प्रामाणिकता नष्ट हो, प्रतिष्ठा को धक्का लगे । श्रावक का इस प्रकार की चोरी का त्याग ही जैन आचार-शास्त्र मे स्थूल अदत्तादान-विरमण व्रत के नाम से प्रसिद्ध है। स्थूल चोरी के कुछ उदाहरण ये है . किसी के घर आदि मे सेव लगाना, किसी की गाँठ काटना, किसी का ताला तोडना, किसी को लूटना, किसी की चीज विना पूछे उठा कर रख लेना, किसी का गड़ा हुआ धन निकाल लेना, डाका डालना, ठगना, मिली हई वस्तु का पता लगाने की कोशिश न करना अथवा पता लगने पर भी उसे न लौटाना, चौर्य बुद्धि से किसी की वस्तु उठा लेना अथवा अपने पास रख लेना आदि । आवश्यकता से अधिक सग्रह करना अथवा किसी वस्तु का अनुचित उपयोग करना भी
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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