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________________ [हिन्दी जैन साहित्य का "एक रूप हिन्दू तुरुक, दूजी दशा न कोइ । मनकी दुविधा मानकर, भये एकसों दोइ ॥ दोऊ भूले भरममें, करें वचन की टेक । 'राम राम' हिन्दू कहें, तुरुक 'सलामालेक' ॥ इनकै पुस्तक वांचिए, वे ह पढ़े कितेब । एक वस्तु के नाम द्वय, जैसे 'शोभा' 'जेब' ॥ तिनको दुविधा-जे लखें, रंग बिरंगी चाम । मेरे नैनन देखिये, घट घट अन्तर राम ॥ यहै गुप्त यह है प्रगट, यह बाहर यह मांहिं । जब लग यह कछु है रहा, तब लग यह कछु नाहिं ॥" कवि ने इसमें एक पंथ दो काज की उक्ति चरितार्थ की है। उसे अध्यात्मवाद का कथन करना अभीष्ट है ; परन्तु साथ ही वह राजनीतिक ऐक्य की आवश्यकता को भी दृष्टि से ओझल नहीं कर सका है। हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य समय की माँग थी। कवि ने उसकी आवश्यकता की पुष्टि करके उस समय की साहित्यिक प्रगति में चार चाँद लगा देने का काम किया है। ___ इस काल की साहित्यिक भाषा प्रारंभ में अपभ्रंश प्राकृत की ओर झुकी हुई थी; परन्तु ज्यों-ज्यों समय बीतता गया त्यों-त्यों उसमें अपभ्रंश प्राकृत भाषा के शब्दों और मुहावरों का स्थान संस्कृत भाषा लेती गयी । इस प्रकार इस कालमें भाषा का सुधार पूर्ण रूप से हो गया था, बल्कि मुसलमानों के मुख से निकली हुई हिन्दी का भी कुछ प्रभाव इस नूतन हिन्दी पर पड़ने लगा था। __ अब यहाँ पर इस काल की रचनाओं और उनके रचयिताओं का परिचय दिया है । परिचय संक्षिप्त है और यहाँ यह संभव
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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