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________________ संक्षिप्त इतिहास ] अपना नाम ही अमर नहीं किया, प्रत्युत हिन्दी जैन साहित्य के गौरव को बढ़ाया है । महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है: “स्वयंभू कविराज कहे गये हैं, किन्तु इतने से स्वयंभू की महत्ता को नहीं समझा जा सकता। मैं समझता हूँ, आठवीं से लेकर बीसवीं सदी तक की तेरह शताब्दियों में जितने कवियों ने अपनी अमर कृतियों से हिन्दी-कविता-साहित्य को पूरा किया है, उनमें स्वयंभू सबसे बड़े कवि हैं। मैं ऐसा लिखने की हिम्मत न करता, यदि हिन्दी के कुछ जीवित चोटी के कवियों ने स्वयंभू रामायण के उद्धरणों को सुनकर यही राय प्रकट न की होती ।" स्वयंभू के काव्य विशाल होने के साथ ही प्रासाद-गुण-सम्पन्न है - काव्य के सबही सर्वोच्चगुण उनकी कृतियों में मिलते हैं। राहुलजी तो “स्वयंभूके वर्णन में हर जगह नवीनता" ही पाते हैं। उनका एक अन्य ग्रंथ 'स्वयंभू छंद' नामक हाल में मिला है। उसके उदाहरणों में जिनदेव की स्तुति-परक छंद देखिये: "तुम्ह पअ-कमल-मूले अम्हं जिण दुक्खभावतवियाई । दुरुदुलिभाई जिणवर जं जाणासु तं करेजसु ॥ ३८ ॥ X X X " जिणणा में छिदेवि मोहजालु, उप्पज देवलसामि सालु । जिणाणा में कम्महूं णिद्दलेवि, मोक्खगो पइसिअ सुह लहेवि ॥ ४४ ॥ १” महाकवि का हृदय जिनेन्द्रभक्ति से ओत-प्रोत है और वह हैं भी बड़े सरल। जब वह अपना 'रिट्ठणेमि चरिउ (हरिवंशपुराण) लिखने बैठते हैं तो बड़े भोलेपन से कहते हैं कि 'क्या करूँ ? १. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३=६-३६२
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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