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________________ १३८ [ हिन्दी जैन साहित्य का ढोगों में बोली जाने वाली हिन्दी के अतिरिक्त कोई दूसरी चीज नहीं थी । जिस तरह आजकल हम जिसे 'छावनी बाजार' कहते हैं उस समय वही 'उर्दू बाजार' कहलाता था । उर्दू शब्द छावनी का द्योतक था और 'उर्दू हिन्दी' छावनी की हिन्दी थी। हिन्दी कवि उससे प्रभावित हुए थे और उस बोली के बहुत से मुहावरों और शब्दों का प्रयोग भी करने लगे थे। कविवर बनारसीदासजी के 'अर्द्धकथानक' में ऐसे प्रयोग और फारसी शब्द अनेक मिलते हैं, यह पाठक आगे पढ़ेंगे। यही नहीं, कविवर की किसी किसी रचना को निरी खड़ी बोली की रचना कहा जा सकता है । उदाहरणस्वरूप यह रचना देखिये "केवली कथित वेद अन्तर गुप्त हुये, जिनके शब्द में अमृत रस चुआ है । अब आगेद यजुर्वेद नाम अथवण, इन्हीं का प्रभाव जगत में हुआ है ॥ कहते बनारसी तथापि मैं कहूँगा कुछ. सही समझेंगे जिनका मिथ्यात मुआ है । मतवाला मूरम्ब न मानै उपदेश जैसे, उलूक न जाने किन ओर भानु उवा है |" इस पद्य में काले अक्षरों में छपे हुए शब्दों को केवल बदल दिया है। उनके स्थान पर उनके विकृत रूप जैसे गुफ्त, भये, शब्द, चुवा, परभाव, मतवारो, हुषा, मुबा आदि थे। इनसे रचना में कोई अन्तर नहीं पड़ता और उसका रूप खड़ी बोली का हो जाता है। अतः यह कहना चाहिये कि खड़ी बोली की पद्यरचना का श्री गणेश भी इस काल में हो गया था, जिसका पूर्ण विकास बीसवीं शताब्दि में जाकर हुआ था। ये हैं इस काल की विशेषताएं ।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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