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________________ दो शब्द श्रीयुत पं० नाथूराम जी प्रेमी ने ही पहले-पहले हिन्दी जैन साहित्य को टटोला था और अपनी शोध के परिणाम-रूप उन्होंने सन् १६२७ ई० में 'हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास' नामक पुस्तक प्रकाशित की थी। हिन्दी के विद्वज्जगत् में उसका बड़ा श्रादर हुआ था । किन्तु प्रथम संस्करण समाप्त होने पर वह दुर्लभ हो गई । विद्वज्जनों को वैसी पुस्तक का प्रभाव खटकने लगा । सन् १६४० में जब हम श्री गोम्मटेश्वर के महामस्तकाभिषेकोत्सव के प्रसंग में श्रवणबेलगोल गये हुए थे और लौटते हुए, बम्बई ये थे तो वहाँ हमें प्रोफेसर ग्रा० ने० उपाध्ये जी मिले। उन्होंने हमें हिन्दी जैन साहित्य के उद्धार के लिए प्रेरणा की । उनके ग्राग्रह को हम टाल न सके और उनसे इस दिशा में प्रगति करने के लिए वचनबद्ध हो गये। मंथर गति से हिन्दी साहित्य के शोधन और अन्वेषण का कार्य यद्यपि उक्त घटना के बाद से ही हमने प्रारम्भ कर दिया था, परन्तु उसको तीव्र प्रेरणा श्री भारतीय विद्याभवन बम्बई द्वारा प्रचालित 'सांस्कृतिक-निबन्ध-प्रतियोगिता' की सूचना से मिली । सन् १६४४ की गरमी के दिन थे । तत्र किसी अंग्रेजी पत्रिका में हमने उक्त सूचना पढ़ी थी । निबन्ध लिखकर भेजने का समय यद्यपि अत्यल्प, कुल तीन चार महीने ही शेष था, परन्तु हमने निश्चय कर लिया कि इस प्रतियोगिता के लिए हिन्दी जैन साहित्य पर ही लिखेंगे । प्रेमी जी प्रभृति अपने मित्रों को हमने 'हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास' लिखने की अपनी भावना व्यक्त की । प्रायः सबने यही लिखा कि यद्यपि यह कार्य स्तुत्य है परन्तु उसकी पूर्ति के लिए हमें जयपुर, नागोर, दिल्ली आदि के शास्त्र भण्डारों का निरीक्षण स्वयं वहाँ जाकर करना चाहिये । यह सत्परामर्श था, परन्तु इसके अनुरूप वर्तना हमारे लिए एक टेढ़ी समस्या थी । घर पर अकेले होने के कारण दीर्घ काल के.
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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