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________________ ११८ [ हिन्दी जैन साहित्य का बाजी से भरी हुई थी । इस रचना के सम्बन्ध में कविवर लिखते हैं " पोथी एक नाई नई, मित हजार दोहा चौपई । तामैं नवरम रचना लिखी पै विसेस वरनन आसिखी ॥ ऐसे कुकवि बनारसी भए, मिथ्या ग्रंथ बनाए नए ॥ " इसके पश्चान उन्होंने जो प्रौढ़ रचनाएँ रचीं, वे साहित्य और धर्म के लिये बड़े महत्त्व की हैं। उनकी अब तक निम्नलिखित रचनाएँ मिली है ( १ ) नाममाला - जो १७५ दोहों का छोटा-सा शब्दकोप है और सं० १६७० में जौनपुर में रचा गया था । वीरसेवामंदिर सरसावा द्वारा प्रकाशित किया जा चुका है । (२) नाटक समयसार - कविवरजी की यह सबसे प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण रचना है । यद्यपि इसका आधार पूर्वाचार्यो के ग्रन्थ हैं, परन्तु फिर भी यह एक मौलिक ग्रन्थ भासता है । सं १६९३ में आगरे में वह रचा गया था । निम्स こ न्देह कविवरजी ने इसमें आध्यात्मिक अलौकिक आनन्द कूट-कूट कर भर दिया है। जरा इस मनहरण छन्द के अनुप्रास, अर्थ और भाव पर विचार कीजिये - "करम भरम जग तिमिर हरन उरंग लखन पग शिव निरखत नयन भविक जल हरयत अमित भविक मदन कदन जित परम धरम सुमिरत भगत भगत स्वरा, मग दरपि । वरपत जन हित, म सरसि ॥ इरमि ।
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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