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________________ (६) गिनना ठीक नहीं । अपभ्रंश काल (८ व ११ वीं सदी) हिन्दी भाषा का काल है । हिन्दी की काव्यधारा का मूलविकास सोलह याने अपभ्रंश काव्यधारा में अन्तर्निहित है, अत एव हिन्दी साहित्य के ऐतिहासिक क्षेत्र में अपभ्रंश भाषा को सम्मिलित किये विना हिन्दी का विकास समझ में ना असम्भव है । भाषा-भाव- शैली तीनां दृष्टियों से अपभ्रंश का साहित्य हिन्दी भाषा का अभिन्न अंग समझा जाना चाहिए। अपभ्रंश ( ८-११ व सदी), देशी भाषा ( १२-१७ वीं सदी) और हिन्दी ( १८ सदी से आज तक ) ये ही हिन्दी के आदि, मध्य और अन्त तीन चरण हैं । लगभग सातवीं शताब्दि से अपभ्रंश भाषा में साहित्य निर्माण का कार्य प्रारम्भ हो गया था जैसा कि दण्डी के काव्यादर्श के एक उल्लेख से ज्ञात होता है 1 " श्राभीरादिगिरः काव्येष्वपभ्रंश इति स्मृताः । १।३६ " अर्थात् ग्रपभ्रंश वह भाषा है जो ग्राभीरादिकों की बोली है और जिसमें काव्य रचना भी होती है । वलभी के राजा गुहसेन ( ५५६-५६६ ) को एक ताम्रपत्र में उन्हें संस्कृत - प्राकृत अपभ्रंश तीनों भाषाओं में काव्य रचना करने में निपुण कहा गया है । "संस्कृतप्राकृत अपभ्रंश भाषात्रयप्रतिबद्धप्रबन्धरचनानिपुणतरान्तःकरण: " (इंडियन ऍटीकेरी १०।२८४ ) किन्तु उतनी प्राचीन अपभ्रंश कविता के उदाहरण अज्ञात है । लगभग ग्राठवीं शताब्दि में स्वयम् नामक महाकवि ( ७६० ई० ) ने हरिवंश पुराण और रामायण की अपभ्रंश भाषा में रचना की जो हमें उपलब्ध है। उसके अनन्तर तो अपभ्रंश के अनेक काव्य मिलते हैं और पुरानी हिन्दी के उदय के बाद भी अपभ्रंश भाषा काव्य रचने की परिपाटी सत्रहवीं शताब्दि तक जारी रही । पुरानी हिन्दी का परिचय सर्वप्रथम हमें रासा साहित्य के द्वारा प्राप्त होता है। रासा की परिपाटी भी सातवीं शताब्दि के लगभग अस्तित्व में या चुकी थी । वाग्भट्ट ने रासा साहित्य का उल्लेख किया है । हिन्दी में पृथ्वीराज रासो प्रसिद्ध है, यद्यपि उसका जो वर्तमान स्वरूप है वह बारहव
SR No.010194
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1947
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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