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________________ जैन भक्ति काव्यका कला-पक्ष १ 'दुहिउ', और ईश्वरसूरिने 'ललितांग' को 'ललिअंग' लिखा है । 'हि' और 'हि' विभक्ति, जो पहले अपभ्रंशमे केवल करण और अधिकरण कारक के बहुवचनमे हो प्रयुक्त होती थी, आगे चलकर प्रायः सभी कारकोंकी विभक्ति बन गयी, मेरुनन्दन उपाध्यायने उसका प्रयोग कर्ता कारकमे किया है - " इम भगसिहिं मोलिम तणीए । सिरि अजिय संति त्रिण थुइ भणिए ॥” - श्रजितशान्तिस्तवनम् ब्रह्मजिनदासने 'हि' का प्रयोग कर्मकारकमें किया है । वह इस प्रकार है, ४२१ "जिनवर स्वामी मुगतिहिं, गामी सिद्धि नयर मंडणो ।” - मियां हुकड़ा कवि हरिचन्दने भी 'हि' को कर्मकारककी विभक्तिके रूपमे ही स्वीकार किया है, "गुरु मत्तिए सरसइहिं पसाएं ।" -- श्रनस्तमितव्रत सन्धि मुनि विनयचन्दने इस विभक्तिका प्रयोग, परम्परा के अनुसार अधिकरण कारकमे ही किया है, "पढम परिक दुइ जहिं आसाढहिं, रिसह गन्भुतहि उत्तरसाढहिं । अंधारी छ तहिमि, वंदमि वासुपूज गब्भुच्छउ ॥' 33 -- पंचकल्याणकरासा मुनि विनयप्रस उपाध्यायने भी, 'हिं' को अधिकरणका चिह्न माना है, "सात हाथ सुप्रमाण देह रूपहिं रंभावरु ।" गौतम रासा हिन्दी में कही-कहीं पर 'हि' के 'ह' का लोप कर केवल 'इ' का प्रयोग देखा जाता है । राजशेखरसूरिने लिखा है कि राजीमनी के सीमन्त में मोतीचूर्णसे युक्त सिन्दूरकी रेखा सुशोभित थी, १. जो नर करइ सो दुहिउ न होइ विद्ध, ज्ञानपंचमी चउपई । ललियंग कुमरचरियं ललणा ललियन्त्र निसुणेह ईश्वरसूरि, ललितांगचरित्र । इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । २. सभी उदाहरणों के लिए, इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय देखिए । ५४
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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