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________________ ३५४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि इसका विषय भक्ति और अध्यात्म दोनो ही से सम्बन्धित है । इसमे लगभग ५००० पच हैं। 'अध्यात्म बारहखड़ो में भक्तिरस अपनी चरम सीमापर पहुंच गया है । ऐसी भाव-विभोरता, ऐसी तल्लीनता बहुत कम रचनाओमे देखी जाती है। पं० दौलतरामने उस 'राम' को वन्दना की है, जो सबमें रम रहा है । ऐसा कोई स्थान नहीं जहां वह राम न हो, "वंदो केवल राम कौं, रमि जु रह्यो सब माहि । ऐसी और न देषिए, जहां देव वह नाहिं ॥१०॥" आत्मा और जिनेन्द्रके रूपमें कोई अन्तर नही है। अतः कविने 'आतमदेव' की सेवा करनेकी बात लिखी है । "पूजौं आतमदेव कौं, करै जु प्रातम सेव । श्रेयातम जगदेव जो, देव देव जिनदेव ॥३०॥" । उदार भक्त कवियोने अपने देवमे हो अन्य देवोंके भी दर्शन किये है। सूरने कृष्णमें रामको और तुलसीने राममे कृष्णको देखा है। जैन कवियोंको जिनेन्द्रमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनो ही दिखाई दिये हैं। छन्द नाराचमे इन विचारोंकी सरसता देखिए, "तुही जिनेश शंकरो सुषंकरो प्रजापती तुही हिरण्यगर्म को गर्म को धरापती महा स्व शक्ति पूरको तुही जिनो रमापती रमा जु नाम माम नाहिं, शक्ति रूप है छती ॥५०॥" नराधिप, सुराधिप और फणाधिप तेरा भजन करते हैं। अनादिकालके कर्म दूर भाग जाते है । हे ईश्वर ! न तू बाल है, न युवा है और न वृद्ध ही है। तू अनेक भी है और एक भी है। तू ज्ञान रूप है और ऐश्वर्यका विधान है, इस. भांति भक्ति करते हुए कविने लिखा है, "नराधिपो सुराधिपो फणाधिपो तुझे मजें अनादिकाल के जु कर्म दास तै परे भनें । तुही जु नाहिं बाल है न वृद्ध है युवा न है अनेक एक ज्ञान रूप ईश तू निधान है ॥५४॥" 'ॐ' की अनेक कवियोंने स्तुति की है। इस रचनामें भी भक्त कविने ॐकी महत्ताका वर्णन किया है,
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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