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________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि प्रारम्भमे उस सरस्वतीकी हाथ जोड़कर वन्दना की है, जो सुराणी है, स्वामिनी है, और वचन - विलासकी ब्रह्माणी है । वह एक ऐमी ज्योति है, जो समूचे विश्वमे व्याप्त है, १२० "सरसति सामनी आप सुराणी, वचन विलास विमल ब्रह्माणी, सकल जोति संसार समाणी, पाद परणमुं जोडि युग पाणि ॥ १ ॥ " ist पार्श्वनाथको वन्दना केवल नर ही नही, किन्तु असुर, इन्द्र, देव, व्यन्तर और विद्याधर आदि सभी करते है । भगवान पार्श्व जिनेन्द्र समूचे संसार के नाथ है । भगवान्के दर्शन उस चिन्तामणिके समान है, जो सभी मनोवांछितोंको पूरा कर देती है । जिनके दर्शनोंमें ऐसी शक्ति हो, उसको महिमा अपरम्पार है, "तेणि धरा जस तुअ उदधि तिहां दिप असंखित, व्योम धरणि पायाल आण सुर बहे अखंडित । असुर इन्द्र नर अमर विविध व्यंतर विद्याधर, सेवे तुज पाय सय न माज सुजपे निरंतर । जगनाथ पास जिनवर जयो मनकामित चिंतामणी, कवि कुशललाभ संपति करण धवलधींग गौडीघणी ॥ अन्तिम कलश || नवकार छन्द १ इसमे १७ पद्य हैं । इसकी हस्तलिखित प्रति अहमदाबाद के गुलाबविजयजी - के भण्डार में मौजूद है। इसमें पंच परमेष्ठीकी वन्दना की गयी है। श्री कुशललाभने लिखा है कि उसका नित्य जाप, संसारकी सुख-सम्पत्तियोंको प्राप्त कराता है, और सिद्धि भी प्रदान करता है । एकचित्तसे पंचपरमेष्ठीको आराधना करनेसे अनेकों अभिलषित ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती है, " नित्य जपीई नवकार संसार संपति सुखदायक, सिद्धमंत्र शाश्वतो इम जंपे श्री जगनायक । नवकार सार संसार दे कुशललाभ वाचक कहे, एकचित्ते आराधीई विविध ऋद्धि वंछित लहे || अन्तिम कलश ॥ " १. जैन गुर्जरकविश्रो, पहला भाग, पृ० २१६ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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