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________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य सौधर्मेन्द्र भगवान् महावीरका स्नानोत्सव मनानेके लिए आया। आते ही चौबीस तीर्थकरोंको कुसुमांजलि अर्पित की। भगवान महावीरको प्रणाम किया। वे भगवान् कलि-मल और कलुषको नष्ट करनेवाले है। उनका स्नानोत्सव जीवको सभी पापोसे मुक्त कर देता है, "भाइ जिणिंदु रिसहु पणवेपिणु, चउवीसह कुसुमंजलि देप्पिणु । वड्ढमाण जिणु पणविवि मावि, कलमलु कलुसवि वछिउपावें। दुलहउ पावेप्पिणु मणुय जम्मु, जिणनाहें देसिउ मुणिवि धम्म । महु मज्ज मंसु नउ अहिलसेइ, पंचुंवर न कयाइ विगसेइ ॥" कविने अन्तमे लिखा है कि वह इस काव्यको गुरु-भक्ति और जिन-भक्तिसे ही पूरा कर सका है, "वील्हा जंडू तणाएं जाएं, गुरुमत्तिए सरसइहिं पसाएं । अयरबाल वरवंसे, उप्पणइ महहरियदेण । मत्तिए जिणु पणवेवि, पयडिउ पद्धड़िया छंदण ॥" पंचकल्याण कविने प्रारम्भमे ही लिखा है कि मैं उन जिनेन्द्रके गर्भादिक कल्याणोका वर्णन करता हूँ, जिनके चरणोंपर, इन्द्रोंके मणि-जटित मुकुट झुका करते है, "शक्क चक्क मणि मुकुट बसु, चुंवित चरण जिनेश । गम्भादिक कल्लाण पुण, वण्णउ भक्ति विशेष ॥" चारों प्रकारके इन्द्र, मन, वचन और कायसे, तीर्थंकरके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण कल्याणकोका महोत्सव मनाते है, "गम्म जम्म तप णाण पुण, महा अमिय कल्लाण । चउविय शक्का आयकिय, मणवकाय महाण ॥" सौधर्म स्वर्गके इन्द्रने अपने अवधिज्ञानसे प्रभुके गर्भ-कल्याणका अवसर समझा, और उसने कुबेरको प्रभुको जन्म-नगरीको सुन्दर बनानेकी आज्ञा दी, "सौधम्मिदास अवधिधारा, कल्लाण गम्भ जिण अवधारा । णयरी रचणा अग्गादिण्णी, कुम्वेरसिक्ख सिर धर लिण्णी ॥" १. इसकी हस्तलिखित प्रति, १६३४ ई० के लिखे एक गुटकेमें संकलित है। गुटका बाबू कामताप्रसादजी जैन, अलीगंजके पास है।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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