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________________ ( ३१३ ) मान पुरुपो यह कथन तुम्हारी समझ में सनातन सूत्रों के न्याय सत्य मालूम होता है १ अपितु नहीं,यदि नहीं तो फिर क्या कहना चाहिये कि वाह जी वाह संवेगी । खूब वीर जीके भक्त प्रतिमा पूजक सम दृष्टि श्रावक लिखे हैं क्योंकि जब सत्य से तो पैदा हुआ और महावीर जी का भक्त था | तवतो ऐसे कौतुक करे कहते हो और जो हराम का तथा अभक्त होता तो क्या जाने क्या कोतुक करे लिखते ॥ सो हे मतावलम्बी ! हम तुम को प्रीति से पूछने हैं कि | तुम्हारे बड़ोंने ये कल्पित कहानियें सुनी सुनाई आवश्यक सरीखे उत्तम सूत्रों में कलंक रूप क्यों लिखी और तुम ने क्या समझ के पक्ष के घण घणाट में प्रमाण करली -
SR No.010192
Book TitleGyandipika arthat Jaindyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherMaherchand Lakshmandas
Publication Year1907
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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