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________________ ( २५२ ) पुण्य तो दीन दुःखी आदिक के देने में होता है साधु को देना निर्जरा का हेतु है| अर्थात पुण्य बन्ध रूप है और निर्जरा मोक्ष रूप है इत्यर्थः ॥ १० और फिर अपने घर में आन के परिवारी जनों को पूछे कि साधु मुनि राज हमारे घर आये कि नहीं और योगवाई मिली अथवा नहीं ? और तुम भाव सहित अहार पानी दिया करो क्योंकि सन्त समागम दुर्लभ होता है । यथा सवैया २३ साः। तात मिलै पुनि मात मिलै सुत भ्रात मिलै युवति सुखदाई ॥ राज मिलै सुख मिलै शुभ भाग मिलै मन वांछित पाई ॥ लोक मिलै परलोक मिलै सुरलोक मिलै अमरा पद जाई ॥ सुन्दर और मिलै सभी सुख
SR No.010192
Book TitleGyandipika arthat Jaindyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherMaherchand Lakshmandas
Publication Year1907
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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