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________________ ( १७० ) करे नहीं | परन्तु दया निमित्त दुःखी जीव का दुःख निवारने को पोषे तो अटकाव नहीं इति १५ पञ्चदश कर्मादानानि || और इन्हीं पन्द्रह कर्मादान केडे महा कर्म आपने आश्री ७ कुविश्व कहते हैं, यथा श्लोक | द्यूतञ्च मासंच सुराच वेश्या पापर्द्धि चौर्य परदार सेवा । एतानि सप्त व्यसनानि लोके घोराति घोरं नरकं नयन्ति ||१|| अस्यार्थः १ जूआ खेलने वाला ||२|| मांस भक्षणे वाला ||३|| मदिरा पीने वाला || ४ || वेश्या गमन करने वाला ||५|| शिकार खेलने वाला ॥६॥ चोरी करने वाला ||७|| पर स्त्री सेवने वाला || ये सात कुविष्ण के सेवने वाले मनुष्य घोर से घोर दुःख स्थान नर्क में पड़ते हैं । इति ॥ और इन सातों कुविष्णों का अन्यान्य दूषण 1 '
SR No.010192
Book TitleGyandipika arthat Jaindyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherMaherchand Lakshmandas
Publication Year1907
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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