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________________ ( १३४ ) - - कितनेक मतांतरी ऐसे कहते हैं, कि आकाश तो एक ही है, परन्तु भिन्नर घड़ों में भिन्नर अन्तर है ऐसे ही चैतन्य, आकाशवत् एक ही है, परन्तु भिन्न २ शरीरों में भिन्न भास मान है और घटरूप शरीरके नाश होने पर चैतन्य आकाश रूप अविनाशी एक ही है उत्तरपक्षी । यह भी कहना तुम्हारा बावले की लंगोटी वत् है । क्योंकि जब तुम्हारी यह श्रद्धा है कि शरीर के विनाश होने पर अर्थात् मर जाने पर चैतन्य आकाश रूप सत्य में सत्य व्यापी स्वभाव ही होजाता है तो फिर तुम्हारा आर्यसमाज समाजनांऔर सत्य समाधि का उपदेश करना निरर्थक है क्योंकि आर्य अनार्य और ऊंच नीच सर्व ही शरीर के त्याग के अंत में अर्थात् घटनाश -
SR No.010192
Book TitleGyandipika arthat Jaindyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherMaherchand Lakshmandas
Publication Year1907
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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