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________________ ( १२२ ) लोग स्ववशवर्ती, स्त्री आदिक के भोग को तज कर ब्रह्मचारी हो जाते हैं सो यह जैन धर्म की प्रभावना है । अथ तृतीयधर्म अंग धर्म जो दुर्गति पडतां धारई इति धर्म तेधर्म क्षमा दया रूप धर्म तथा सम्बर निर्जरा रूप धर्म यथा सत्येनोत्पद्यते धर्मो दया दानेन 1 वर्द्धते । क्षमया स्थाप्यते धर्मः क्रोध लोभा दिनश्यति ॥१॥ अर्थात् १ धर्म का पिताज्ञान २माता दया ३ भाई सत्य ४ बहन सुबुद्धि ५ स्त्री दमितेन्द्रिय ६ पुत्र सुख ७ घर क्षमा ८ बैरी क्रोध लोभ ॥१॥ ते धर्म आचरण की विधि लिखते हैं । प्रथम तो पूर्वक निग्रन्थ गुरु से भक्ति रूप प्रीति समाचरे सो गुरुजी के मुखारविन्द से शास्त्रादि उपदेश सुन के | बोध को प्राप्त करे और नौ तत्व पट द्रव्य के
SR No.010192
Book TitleGyandipika arthat Jaindyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherMaherchand Lakshmandas
Publication Year1907
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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