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________________ ( ११९ ) - रण की मर्यादा के भीतर न लेजाय सोई हम तुम्हारे से पूछते हैं कि हे मतावलम्बी ! तुम फूल आदि सुचित्त द्रव्य से पूजा किस न्याय से मुख्य रखते हो अथवा शायद तुम फूलों को और फलों को सुचित्त न मानते होगे क्योंकि जब सूत्र में मनाई हे और तुम कहते हो कि जितने घने २ चढ़ावे उतने ही घनी आज्ञा के आराधक होय अर्थात् लाभ। होय ॥ तर्क० । अगर तुम यह कुटिलता ग्रहण करोगे कि अपने पहरने खाने के निमित्त सुचित्त । द्रव्य ले जाने समवसरण के मनाई है। परन्तु भगवानकी भक्ति निमित्त मनाई नहीं है। उत्तरपक्षः-सूत्र में तो ऐसे नहीं है और स्वकपोल कल्पित कुछ बना धरोअगर हे तो OU
SR No.010192
Book TitleGyandipika arthat Jaindyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherMaherchand Lakshmandas
Publication Year1907
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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