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________________ ( १०१ ) परम सजन और प्रेमी महात्माओं को विदित हो कि यदि कोई पूर्वपक्षी प्रथमभाग को बांच कर ऐसे कहे कि देखो उत्तर पक्षी ने जैनतत्त्वादर्श ग्रन्थ में के गुण तो अङ्गीकार किये नहीं और जो कोई अवगुण थे वे अङ्गीकार किये हैं छलनीवत् । तो उसको हम उत्तर देते हैं, कि हे भाई ! हम अवगुण के ग्राही नहीं हैं, क्योंकि हम तो पहिले ही पत्र ||७१वें में लिखआये हैं कि “जोसनातन सूत्रानुसार जैनतत्त्वादर्श ग्रन्थ में कथन हैं सो यथार्थ और सत्य हैं तो फिर अवगुणग्राही कैसे जानें? अरे भाई ! हमतो गुण को अङ्गीकार करते हैं और अवगुण को निकाल के फैंक देते हैं, छाजवत् । जैसे किसी पुरुष ने अच्छी सुफ़ैद कनक अर्थात् गेहूं पक्वान्न के वास्ते -
SR No.010192
Book TitleGyandipika arthat Jaindyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherMaherchand Lakshmandas
Publication Year1907
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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