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________________ मालोच्य कविता का सामूहिक परिवेश जैन कवियों का हिन्दी में साहित्य-रचना के प्रति परम्परागत मोह रहा है । प्रान्तीयता को लेकर भाषा के झगड़े इनमें कभी नहीं उठे, उठे भी तो लोकभाषा को लेकर ही। हिन्दी में लोकभापा और लोकजीवन के सभी गुण विद्यमान थे । अतः गूर्जर जैन कवियों ने भी इसे महर्प अपनाया। इनकी हिन्दी भाषा में, शिक्षा और प्रान्तीय प्रभावों के कारण थोड़ा अन्तर अवश्य आया किन्तु भाषा के एक सामान्यरूप अथवा उसकी एक ल्पता में कोई विकृति नहीं आने पाई। गांधीजी ने हिन्दी के जिस रूप की कल्पना की थी, जैन गुर्जर कवियों की रचनाओं में वह उपलब्ध है। हां, साधु-सम्प्रदायों में पले कवियों की भाषा संस्कृतनिष्ठ रही है । जैन गजैर कवियों द्वारा हिन्दी में रचता किये जाने के कारण (१) सांस्कृतिक कारण : सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पूर्ण भारत एक है। भारत के तीर्थों ने जाति, धर्म और प्रदेशों के लोगों को एक-दूसरे के निकट लाने में विशेष सहयोग दिया है । इन्हीं तीर्थधामों ने एक-दूसरे के विचारों के आदान-प्रदान के लिये विभिन्न भाषा भापियों के बीच एक सामान्य भाषा को पनपने का अवसर भी दिया है। जैनों के . तीर्थ भी सम्पूर्ण देश के प्रमुख भू-भागों में विद्यमान हैं । देश के एक छोर से दूसरे छोर तक की यात्रा में इसी भाषा का सहारा लेना पड़ता था । (२) राज्याश्रय : जैन कवियों ने तो राज्याश्रय कभी स्वीकार नहीं किया परन्तु जैन धर्मावलम्बी शासकों ने जैन धर्म और साहित्य को आश्रय देने का कार्य अवश्य किया है । मुसलमान वादशाह और सूवेदार भी इस धर्म के प्रति सहिष्णु रहे । कच्छ के महाराव लखपतसिंहजी ने तो भुज में ब्रजभाषा पाठशाला की स्थापना की थी जिसका विस्तृत परिचय दिया जा चुका है। इन राजाओं के कारण भी इन कवियों को हिन्दी में लिखने की प्रेरणा मिलती रही। (३) धार्मिक : साहित्य धार्मिक आन्दोलनों से भी अवश्य प्रभावित होता रहा है । जैन साधु भी धर्म प्रचार के लिए देश के अन्यान्य भागों में घूमते रहे हैं। इनकी साहित्यिक प्रवृत्तियों से हिन्दी को काफी बल मिला । जैन भण्डारों में हिन्दी के अनेक ग्रन्थों की, सुरक्षा संभव हो सकी है। (8) साहित्यिक : - हिन्दी अपनी व्यापकता, सरलता, साहित्यिक सम्पन्नता और संगीतमयता के कारण भी अधिक लोकप्रिय रही। गूर्जर जैन कवि ब्रजभाषा के लालित्य, माधुर्य
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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