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________________ गड़बड़ घोटाले के अर्थ में भी प्रयुक्त होने लगा है. परन्तु प्राचीन रचनाओं में तो 'रासो' के स्थान पर 'रास' शब्द का ही प्रयोग मिलता है । १ उक्त समस्त विवेचन की दृष्टि से आलोच्य युगीन जैन-गुर्जर कवियों द्वारा प्रणीत रास - साहित्य को देखने पर यह अनुमान सहज ही किया जा सकता है कि इनकी रचनाओं में धीरे-धीरे दर्प या वीरत्व भी समाविष्ट होता गया और इस प्रकार एक ओर ये वीरत्व प्रधान काव्य बनते गये और दूसरी ओर कोमल भावनाओं के यह दूसरी धारा 'फागु' के रूप में सुरक्षित मिलती है । रचनाओं में छन्द, अभिनय, संगीत, नृत्य, धर्म, उपदेश, भाव आदि तत्वों का समन्वय सहज ही देखने को मिलता है । इन्होंने विविध विषयों विषय विशेष की प्रधानता के कारथ हम उसे इन विषयों में मुख्य रूप से, उपदेश, चरित, कथा, तीर्थयात्रा, संघवर्णन, ऐतिहासिक प्रेरक-रूप में भी चलते रहे। इस प्रकार इन कवियों की को संजोया है । कभी किसी रास में उस विषय से संबद्ध रास कह देते हैं । प्रव्रज्या या दीक्षा, वैभव वीरता, उत्सव, वर्णन आदि का परिगणन हुआ है । वस्तुतः किसी चरित्र अथवा विषय को आधार बनाकर उपदेश तथा धर्म प्रचार की भावना इनमें विशेषतः परिलक्षित है। वीतरागी राजपुरुष तथा मुनियों के दीक्षा ग्रहण के अवसर पर रास खेले भी जाते रहे हैं । संगीत एवं अभिनय के तत्व सर्वमाधारण की प्रकृति प्रदत्त अनुभूति को जगाकर रसानन्द को साकार करते थे । रास रचना के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए श्री मोहनलाल देसाई ने अपने ग्रंथ 'गुजराती माहित्य नो इतिहास' में बताया है 'चरित्रों के गुणों का वर्णन करने, उनके दोषों को हटाने, यात्रावर्णन करने, संघ निर्माण करने, मन्दिरों का जीर्णोद्धार करने, दीक्षा उत्सव हेतु जय घोषणार्थ आदि के लिए ही इन रास ग्रंथों की रचना की जाती थी । इसके अतिरिक्त वे भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक और चरितमूलक भी होते थे । जैन रासो - साहित्य जितना चरित्रमूलक होता था, उतना ही ऐतिहासिक भी होता था ।' आलोच्य युगीन जैन- गुर्जर कवियों द्वारा प्रणीत हिन्दी एवं गुजराती-राजस्थानी मिश्रित भाषा में रचित रास इस प्रकार हैं- १. ऋषभदास : कुमारपाल रास, श्रेणिक रास, रोहिणी रास, भरतेश्वरनो रास, तथा हीरविजयसूरि रास । नागरी प्रचारिणी पत्रिका, सं० २०११, अंक ४, पृ० ४२०, नाहटा जी का लेख |
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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