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________________ [४१ प्राचीन प्राचार्य परम्परा दैन्यदूर, नित कर्म-सुभंजक, धर्मरत्न, संयम प्रतिमा; अनुपमचरित्र, चारित्रांकित, त्यागभावकी बहु गरिमा ।। क्षमामूर्ति, स्वात्मोपयोगरत, सौम्यमूर्ति, अतिपूज्यचरण; स्वैराचारविरोधक सविता, परमाराध्य, सदैवशरण ॥ महाअहिंसक, संसृतितारक, निजात्मचरमोन्नतिसाधक; विरागमूर्ति, ऋजुबालकवत्, कर्मशत्रुके परिहारक । धैर्यपुत्र तुम, क्षमातनय तुम, शान्तिपति हे सत्यसखा; दयाभ्रात तुम, जगबन्धु तुम, महासंयमी सर्वसखा ।। ज्ञानाहारी, धर्मविहारी, अष्टविंशति गुणधारी; हितोपदेशक, मुक्तिसुदर्शक, जीवमात्रके हितकारी ॥ जैनधर्मके सूर्यराज तुम, त्रिलोकके तुम सत्यगुरू; मुक्तिमार्ग के पथिक श्रेष्ठ तुम, सदापूज्य हे जगद्गुरु ।। नमोऽस्तु गुरु हे ! नमोऽस्तु मुनि हे ! नमोऽस्तु जिनपथसच्चालक; जय हो! जय हो!! जय हो!!! संतत जैनधर्मके सद्धारक । पOOD 69OAHESA
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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