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________________ C प्राचीन प्राचार्य परम्परा ३६ ] जीव उद्धार के लिये किये जाने वाले सतत् प्रयत्नों का नाम ही जैनधर्म है और इस जीव उद्धार की परम्परा में भी आत्म हित, स्वजीव उद्धार प्रमुख है, उसके बाद पर की बात श्राती है । आचार्यों ने कहा है 2 प्रादहिदं कादव्वं जं सक्कइ परहिंदं च कादव्वं । श्रादहिदपरहिदादो प्रादहिदं सुट्ट- कादव्वं ॥ भगवती आराधना इसी भावना के फलस्वरूप आचार्यो का मूल उद्देश्य आत्मकल्याण ही रहा है पर जिस प्रकार सूर्य के निकलते ही अंधकार नष्ट हो जाता है, कमल खिल जाते हैं, उसी प्रकार जीवन में भी ता जाती है । क्या सूर्य इन सबको करने की भावना से उगता है, नहीं न ! सूर्य को तोसमय पर उदय होना ही है उससे जो भी कार्य हो जावे; इसी भाँति दिगम्बर गुरु भी ऐसे ही सूर्य हैं जिनके दर्शन से मिथ्यात्व अंधकार नष्ट हो ज्ञान का प्रकाश फैलता है, लोगों का हृदय कमल खिल उठता है, सोते समाज व राष्ट्र में एक नवीन चेतना स्फूर्ति आ जाती है । गुरु तो स्वयं आत्महित में लगा होता है यह तो अनायास ही हो जाता है । हां कहीं गुरु को पुरुषार्थ पूर्वक भी कार्य करना पड़ता है । श्रमण संस्कृति का परिवर्धन : पंचम काल के अंत तक दिगम्वरत्व को जीवित रखने का कार्य इन्हीं दिगम्बर गुरुत्रों के माध्यम से ही होना है । इस प्रकार श्रमरण संस्कृति को गतिशील बनाये रखने का भार प्रमुखतया हमारे आचार्यो पर ही है । धर्मोपदेश के द्वारा गृहस्थों को गृहस्थ धर्म के प्रति अपने कर्तव्य का बोध कराते हुए समाज व राष्ट्र के प्रति स्व कर्तव्यका वोध इन्हीं आचार्यो के द्वारा ही होता है । श्राचार्यो के माध्यम से ही धर्म प्रभावना का महत् कार्य सम्पन्न होता है जो एक विद्वान् से कदापि संभव नहीं है | जिसप्रकार रिले रेस में एक धावक अपनी दौड़ पूरी करके आगे बढ़ा देता है उसी प्रकार एक आचार्य दीक्षित होने के बाद श्रमण संस्कृति का परिवर्धन करते हुये इस ज्योति को जलाये रखने का भार अपने शिष्यों पर सौंप कर इस परम्परा को बनाये रखता है । धर्म प्रभावना का महत्वपूर्ण कार्य जो इन दिगम्बर गुरुत्रों के माध्यम से हुआ वह अविस्मरणीय है । पुरातत्व तीर्थों का विकास : जैनाचार्यो के माध्यम से देश की पुरातत्व संस्कृति को बहुत वल मिला है। विश्व का ८वां आश्चर्य श्रवणबेलगोल में बाहुबली की मूर्ति नेमिचन्द्र आचार्य की प्रेरणा से ही बनी ।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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