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________________ प्राचीन आचार्य परम्परा [ १७ लहर दौड़ गई। सौधर्म इन्द्र ने बड़े वैभव के साथ सुमेरु पर्वत की पांडुक शिला पर क्षीर सागर के जल से भगवान का जन्माभिषेक किया। इन्द्र ने उस समय उनके वीर और वर्धमान ऐसे दो नाम रखे। श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर के बाद दो सौ पचास वर्ष बीत जाने पर श्री महावीर स्वामी उत्पन्न हुए थे । उनकी आयु भी इसी में शामिल है। कुछ कम बहत्तर वर्ष की आयु थी, सात हाथ ऊँचे, स्वर्ण वर्ण के थे । एक वार संजय और विजय नाम के चारण ऋद्धिधारी मुनियों को किसी पदार्थ में सन्देह उत्पन्न होने से भगवान के जन्म के बाद ही वे उनके समीप आकर उनके दर्शन मात्र से ही संदेह से रहित हो गये तब उन मुनि ने उस बालक का सन्मति नाम रखा। किसी समय संगम नामक देव ने सर्प वनकर परीक्षा ली और भगवान को सफल देखकर उनका महावीर यह नाम रखा। तीस वर्ष के बाद भगवान को पूर्वभव का स्मरण होने से वैराग्य हो गया तब लौकान्तिक देवों द्वारा स्तुति को प्राप्त भगवान ने दीक्षा ग्रहण कर ली और तत्काल मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त कर लिया । पारणा के दिन कूलग्राम की नगरी के कूल नामक राजा के यहाँ खीर का आहार ग्रहण किया। किसी समय उज्जयिनी के अतिमुक्तक वन में ध्यानारूढ़ भगवान पर महादेव नामक रुद्र भयंकर उपसर्ग करके विजयी भगवान के महति महावीर नाम रखकर स्तुति को । किसी दिन सांकलों में बंधी चंदनवाला ने भगवान को पड़गाहन किया तब उसकी बेड़ी आदि टूट गई और भगवान को आहार दिया। छद्मस्थ अवस्था के बारह वर्ष बाद जंभिक ग्राम की ऋजुकूला नदी के किनारे मनोहर नामक वन में सालवृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ला दशमी के दिन भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हो गया। उस समय इन्द्र ने केवलज्ञान की पूजा की। भगवान की दिव्य ध्वनि के न खिरने पर इन्द्र गौतम गौत्रीय इन्द्रभूति ब्राह्मण को युक्ति से लाये तब उनका मान गलित होते ही वे भगवान से दीक्षित होकर मनःपर्यय ज्ञान और सप्त ऋद्धि से विभूषित होकर प्रथम गणधर हो गये तब भगवान की दिव्य ध्वनि खिरी। श्रावण कृष्ण एकम के दिन दिव्यध्वनि को सुनकर गौतम गणधर ने सायंकाल में द्वादशांग श्रुत की रचना की। इसके बाद वायुभूति आदि ग्यारह गणधर हुए हैं। भगवान के समवसरण में मुनीश्वरों की संख्या चौदह हजार थी, चंदना आदि छत्तीस हजार आर्यिकायें थीं। एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकायें असंख्यात देव देवियों और संख्यातों तिर्यच थे। बारह गणों से वेष्टित भगवान ने विपुलाचल पर्वत पर और अन्यत्र भी आर्य खंड में विहार कर सप्ततत्त्व आदि का उपदेश दिया।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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