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________________ चौबीसवें तीर्थंकर - महावीर सव द्वीपों के मध्यमें रहने वाले इस जम्बू द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर किनारे पर पुष्कलावती नामका देश है, उसकी पुण्डरीकिरणी नगरी में एक मधु नाम का वन है । उसमें पुरुरवा नाम का एक भीलों का राजा रहता है । उसको कालिका नाम की स्त्री थी। किसी एक दिन दिग्भ्रम हो जाने के कारण सागरसेन नाम के मुनिराज उस वन में इधर उधर भ्रमण कर रहे थे । उन्हें देख, पुरुरवा भील मृग समझ कर उन्हें मारने को उद्यत हुआ परन्तु उसकी स्त्री ने यह कह कर मना कर दिया कि 'ये वन के देवता घूम रहे हैं इन्हें मत मारो' । उस पुरुरवा भील ने उसी समय प्रसन्न चित्त होकर मुनिराज के पास जाकर नमस्कार किया और गुरु के उपदेश से मद्य, मांस, मधु इन तीनों का त्याग कर जीवन पर्यन्त व्रत का पालन कर आयु के अन्त में सौधर्म स्वर्ग में एक सागर की आयु वाला देव हो गया । इसी भरत क्षेत्र के अयोध्या के प्रथम चक्रवर्ती राजा भरत की अनन्तमती रानी से पुरुरवा भील का जीव मरीचि नाम का ज्येष्ठ पुत्र उत्पन्न हुआ । अपने वावा भगवान वृषभ देव की दीक्षा के समय स्वयं ही गुरुभक्ति से प्रेरित हो मरीचि कुमार ने कच्छ आदि चार हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली थी । भगवान के छह महीने के योग के समय आहार की विधि से अनभिज्ञ ये सभी साघु क्षुधा, तृषा आदि परीषहों से भ्रष्ट होकर स्वयं तालाव का जल, वन के फल फूल ग्रहण करके खाने लगे । यह देख वन देवताओं ने कहा कि निर्ग्रन्थ वेष धारण करने वाले मुनियों का यह क्रम नहीं है | यदि तुम्हें ऐसी प्रवृत्ति करना है तो इच्छानुसार दूसरा वेष ग्रहण करो । मिथ्यात्व से प्रेरित मरीचि ने इन वचनों को सुनकर सबसे पहले परिव्राजक दीक्षा धारण कर ली । जब वृषभ देव को केवलज्ञान प्राप्त हो गया तब समवसरण में सभी भ्रष्ट हुए साधुत्रों ने दीक्षा धारण करके आत्म कल्याण कर लिया । किन्तु यह अकेले मरीचि तीर्थकर की दिव्य पुनः
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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