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________________ दिगम्बर जैन साधु ऐलक श्री सुमतिसागरजी महाराज [ ५११ तारादेही (दमोह) के श्री गुलझारीलाल जैन सर्राफ एक दिन खानदानी व्यवसाय को छोड़कर शिवपथ के अनुगामी बनेंगे इसका तो रत्तीभर भी गुमान उनके पिता लक्ष्मीचन्दजी को भी न था । सं० १९८३ माघ शु० १४ को इस प्रतिष्ठित सर्राफ परिवार में इस विभूति का जन्म हुआ तो माता कौशल्या देवी की चिरसाध मानो साकार हो उठी। ग्रामीण वातावरण में भला पले-पुषे अल्पशिक्षित दम्पत्ति की मनोकामना सांसारिक विषयों के अतिरिक्त हो भी कहां सकती थी । परन्तु जल्दी ही उनका यह मोहजाल टूट गया जब उन्होंने अपनी इस प्यारी संतान को भव भोगों से विरक्त पाया । विरक्ति का कारण कुछ भी रहा हो पर यह निश्चित है कि सत्संगति और सांसारिक संबंधों के स्वार्थपना की अनुभूति आपके चित्त को विराग की ओर उन्मुख करती रही । विराग का यह स्रोत सं० २०१३ में पू० मुनि श्री विमलसागरजी महाराज के चरणों का श्राश्रय पाकर फूट ही पड़ा । जीवन में धर्मक्रान्ति का बीज अंकुरित हो उठा । पू० मुनि श्री ने इस निकट भव्य को तृतीय प्रतिमा के व्रत ग्रहरण कराकर संसार भ्रमण सीमित कर दिया । सं० २०२५ में पूज्य मुनि श्री निर्मलसागरजी महाराज ने सुपात्र की योग्यता परखकर 'ऐलक' पद की दीक्षा प्रदान की और आपका नाम सुमतिसागर घोषित किया । होनहार की बात, क्षणभर पहले का गुलझारीलाल सर्राफ गुरु कृपा से रत्नत्रय का पाथेय लेकर भवबन्धन का जाल काटने के लिए घर से निकल पड़ा। तब से न जाने कितने भटकते हुए जीवों को इस विभूति ने सद्धर्मामृत का पान कराकर सन्मार्ग में लगा दिया । निरन्तर धर्मप्रचार और धर्म साधना करते हुए आप चारों अनुयोगों के स्वाध्याय में दत्तचित्त रहते हैं । क्षुल्लकश्री विद्यासागरजी महाराज अनादि की भूल सुधारने का एक अवसर नरतन में ही मिल पाता है फिर और पर्यायें तो ऐसी हैं कि उनका न होना ही आतम हित में है। अलबत्ता ऐसा मानकर चलने वाले भी हममें से इक्के-दुक्के ही होते हैं । संसार भोग से कुछ ऐसा तृष्णा भाव हो जाता है कि वितृष्णा की बात सुहानी लगने लगती हैं । नर जीवन का इससे अधिक उपहास और क्या हो सकता है । बात हर बार वही चलती है पर 'करूंगा' के इति शब्द से आत्महित की इतिश्री न जाने कितनी बार करने की गल्ती अनायास ही होती जाती है । 'संमीलने नयनयोर्नहि किञ्चिदस्ति' की भावना भाने वाले श्री
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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