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________________ दिगम्बर जैन साधू [५०६ प्रति हृदय के किसी कोने में अवशिष्ट आसक्ति पर भी विरक्ति का पूरा कब्जा हो गया। अजमेर पाकर आपने अपना करोबार बन्द कर दिया । और फिर, घर छोड़ा तो ऐसा कि भूल कर भी मुख न किया । सम्यक्त्व का प्रभाव ही ऐसा है । कालक्रम से आप नसीराबाद आये, जहां पर श्री १०८ मुनि श्री ज्ञानसागरजी म० के धर्मोंपदेश से कर्मवेडियां चटकने लगीं। मुनिराज से सप्तम प्रतिमा के व्रत लेकर अपनी सम्यग-गठरी को सम्भालने में दत्तचित्त हो गये। मुक्ति की राह : सम्वत् २०१६ ईसरी में पंच कल्याणक प्रतिष्ठा का आयोजन हो रहा था । १०८ श्री निर्मल सागरजी म. एकान्तवादियों की दुर्मति सप्तभंगी तीक्ष्ण धारा से काट-काट कर निर्मल मति में परिणित कर रहे थे। इन्हीं मुनिराज के चरण सान्निध्य में आपने क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होने के बाद आप गुरुपद कमलों का अनुगमन करते हुए धर्म-ध्यान करते रहे तथा तप संयम में अपने . भाव लगाते रहे। विक्रम सं० २०२० में गुरुदेव से बाराबंकी चातुर्मास के समय ऐलक दीक्षा प्राप्त की। सं० २०२५ में विनीत शिष्य के लिये समय आया शिवपथ में छलांग लगाने का । देव भी तरसते हैं जिस संयम के लिये उसे पाने को शिष्य ने झोली फैला दी । खेखड़ा में गुरु ने मुनि दीक्षा देकर उसे कृतकृत्य कर दिया । अंतरंग-बहिरंग परिग्रह को त्याग करने की सन्मति जिसके हो जाय भला उसकी पात्रता में संदेह की गुजाइश ही कहां हो सकती है । सो गुरु ने इस भव्यात्मा का नाम सन्मतिसागर रखकर औरों को भी "सन्मति" देने का आदेश दिया। शिष्य ने अपने तीनों पदों की दीक्षा काल के गुरु पू० श्री निर्मलसागरजी म० के आदेश को शिरोधार्य कर जिन शासन प्रभावना के लिये अपना कदम बढ़ा दिया। धर्मप्रचार एवं प्रभावना : आपने देश भर में भ्रमण करके धर्मामृत को वर्षा से भव्यों के हृदय कमलों को सिंचित करते हुए प्रफुल्लित किया। समडा और विजौरी में हजारों अर्जन नर-नारियों ने आजीवन मद्य-मांस-मधू का त्याग करके जिन शासन के महत्त्व को अंगीकार किया।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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