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________________ ४६० ] दिगम्बर जैन साधु मुनि श्री वीरसागरजी महाराज.. ---- -- सोनागिरि वैसे है तो जैनियों का तीर्थ, सो भीड़ भरी लारियां जव-तब आना यहां के वासिन्दों के लिये आम बात हो गई है । पर २३ अक्टूबर ७६ के दिन बेमौसम श्रावकों का रेला उमड़ता दिखा तो गांव वालों में कुछ जानने की उत्सुकता बढ़ गई । उत्सुकता की खोज बढ़ी तो हर्ष का ठिकाना न रहा। विजपुरी ( भिण्ड ) के मोहरलाल का सपूत रामस्वरूप माताकुवरजी की आंखों का तारा परिवार की ममता को छोड़कर आज धर्मसंघ में प्रवेश लेने जा रहा था। निर्णय ठीक था। अब मोह जैसी कोई बात नहीं थी। ____ अब तक संसार चक्र में उसने क्या नहीं देखा था। सो निर्णय अटल ही रहा । पू० प्राचार्य श्री सुमतिसागरजी म० ने श्रावकों के हर्षोल्लास के मध्य क्षुल्लक दीक्षा प्रदान कर रामस्वरूप की संसार दशा को समाप्त कर दिया । विनीत शिष्य की योग्यता अपना रंग लायी और गुरूवर ने २८ मार्च ७७ को बाह्य आभ्यंतर दोनों परिग्रह से मुक्त करते हुए थूवनजी क्षेत्र में मुनि दीक्षा प्रदान की और आपका नाम "वीरसागर" प्रचालित किया । धन्य है आपका साहस जो इस पंचमकाल में धीर पुरुषों के चित्त को भी दोलायमान करने वाली महावत की कठिन चर्या को अंगीकार करने के भाव हुए।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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