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________________ दिगम्बर जैन साधु [ ४४१ मुनि श्री ज्ञानसागरजी (धार) इस कुटिल पंचम काल में ऐसे जीव बहुत ही थोड़े हैं, जो आदर्श पथ पर गमन कर अपने अमूल्य मानव जीवन की चरम सीमा प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। जिन जिन आत्माओं की, अपनी निज आत्म विभूति की ओर दृष्टि गई है, वे आत्माए इस संसार में प्रातः स्मरणीय एवं जगद्वन्दनीयता को प्राप्ति होकर, चरम सीमा को प्राप्त हुई हैं । वे आत्माएं आज इस संसार में नहीं हैं और पंच परावर्तन रूपी रहट ( यंत्र ) के भी परिचक्र को उन्होंने परिपूर्ण कर दिया है तथा वे निजानंद में लीन होकर लोकाग्र भाग में निवास करती हैं। आज ऐसी पवित्र आत्माओं के दर्शन होना दुर्लभ है, परन्तु उनके आदर्श और उच्च पथ पर अपितु उनके सदृश मोक्ष मार्ग पर गमन करने वाली आत्माओं का अब भी अभाव नहीं है, उन्हीं के दिव्य दिगम्बराभूषण को धारण करने वाली महात्माओं के दिव्य दर्शनों का सौभाग्य भी प्राप्त हुवा है यह हमारे सातिशय पुण्य का उदय है परन्तु ऐसी पवित्र आत्मायें इस समय २०-२५ से अधिक नहीं हैं। उन्हीं पवित्र आत्माओं में से एक महात्मा श्री दि० गुरु ज्ञानसागरजी महाराज (धार ) जो आचार्य श्री शान्तिसागरजी ( छारणी ) के एक आदर्श और आद्य शिष्य हैं, जिनके चरण कमलों में यह "पूजन" रूप तुच्छ भेंट सादर समर्पण करने के लिये समुन्नत हुआ हूं। जिनका महात्म्य इस भारत के मुख्य केन्द्र मालवा सी. पी. यू. पी. भद्र देश, ढूंढार देश हाडोती आदि २ में प्रकाशित हो रहा है, जिनके धवल गुण रूप पताका यश रूप में फहरा रही है। आपमें आकर अनेक सद्गुण निवास करते हैं, परन्तु हमें यह बताना है कि आपका पाण्डित्य, तपोविशेषता, वक्तृत्व शैली, चारित्रवल और सहनशीलता उपसर्ग विजयता भी कुछ कम नहीं है। यहां पर उपयुक्त बातों का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराना भी अनुचित न होगा। पाण्डित्य--आप एक बहुत बड़े भारी उद्भट विद्वान हैं, आपका बाल्यकाल से ही स्वाध्याय आदि पठन-पाठन की ओर सदैव लक्ष्य रहता था तथा आपने अनेक आचार्य प्रणीत उच्च कोटि के ग्रन्थों का स्वाध्याय कर अपूर्व ज्ञान का सम्पादन किया है, इसलिये आपकी पाण्डित्यता से जैन तथा जैनेतर समाज भली प्रकार सब ही परिचित हैं, आपका युक्तिवाद तो इतना प्रबल है कि सामने वादी ठहरते नहीं हैं तथा आगमवाद के सागर ही हैं इसीलिये आपका नाम "ज्ञानसागरजी" ही है, "यथा नाम तथा गुण" वाली कहावत यथार्थ चरितार्थ की है।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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