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________________ . NRE . Danie.aap दिगम्बर जैन साधु [ ४२३ मुनि श्री नेमिसागरजी महाराज बालक के शिक्षण में जननी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान होता है । यह तथ्य मुनि श्री के चरित्र से पूर्णतया ज्ञात होता है, मुनि श्री की वंदनीय जननी ने अपने संस्कारों से मुनि श्री को भी वंदनीय बना दिया। __मुनि श्री का जन्म महाराष्ट्र प्रदेश में सांगली जिले के प्रारंग गांव के यादवराऊ के प्रतिष्ठित कुल में हुआ। आपकी माताजी का नाम रतनदेवी सार्थक है । वे स्त्रीरत्न हैं और उनका अपना सिद्धान्त है कि अपने को देव-भाग्य से सब कुछ मिलता है फिर चिन्ता क्यों की जावे । मुनि श्री के पिता का नाम नरसुदास था। वे व्यावहारिक व धार्मिक व्यक्ति थे । मुनि श्री के चार बड़े भाई थे । यशोधर ने आचार्य १०८ पायसागरजी से मुनि दीक्षा ली थी। दो भाई गृहस्थ जीवन बिता रहे हैं और मुनि श्री सव भाईयों में छोटे थे । इनका नाम इन्द्रजीत था। ये बचपन से ही धार्मिक कार्यों में रुचि लेते थे । आपके मन में धार्मिक संस्कार सुदृढ़ थे । आपकी दो शादियां हुई और कुल छह पुत्र पुत्री हुए । पर फिर भी आपका शास्त्र स्वाध्याय विषयक प्रेम बढ़ता ही गया। आपने मुनि श्री शान्तिसागरजी के वचनामृत को सुनने के लिए सैंकड़ों रुपये किराये में दिए । आपसे मुनिदीक्षा लेने की प्रबल इच्छा थी, पर शान्तिसागरजी की सल्लेखना पूर्ण हो जाने से आपने आचार्य पायसागरजी से सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा लेकर घर रहे । . सिरगुणी नामक ग्राम में पंचकल्याणक महोत्सव था। वहां पर आप मुनि श्री १०८ वर्धमान सागरजी से दीक्षा लेने के विचार में थे। परन्तु घरवालों ने बाधा डाल दी फिर भी आप घर वापिस नहीं आये वल्कि कुशनाई गांव में रहे । और जब सकनवाड़ी में पंचकल्याणक हुआ तब क्षुल्लक दीक्षा ली इसके बाद आचार्य पायसागरजी से आपने गिरिनारजी में मुनि दीक्षा ले ली तथा उनके संघ में रहे। आपने गाजियाबाद, हस्तिनापुर, खतौली, जयपुर नगर, सरधना, बिजनौर, नजीबाबाद, नगीना, नहटौर, एटा आदि स्थानों की जनता को धर्म लाभ दिया।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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