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________________ [ ४०६ दिगम्बर जैन साधु मुनि श्री जयकीर्तिजी महाराज R KAR . JADHA . PRET 2 . । .. . AdyA RETS J क्षु० विमलसागरजी लेंगड़े ने पवनकुमार के सुकोमल मन में संस्कारों की नींव इतनी गहरी जमा दी थी कि उसके जागृत विवेक ने उसे पूज्य आ० श्री अनंतकीर्तिजी म० के चरणों में लाकर बिठा दिया और जब वह वहां से उठा तो उनके पथ का अनुगामी बन कर ही उठा। इस चिरकुमार के मन में वैराग्य के भाव अक्कलकोट में हुए । स्व. आ० श्री पायसागरजी म. के चातुर्मास काल में संघ सेवा करते ही उदित हो गये थे पर शायद दीक्षा का समय नहीं आ पाया था सो रुका ही रहा । समय पाकर ही तरुवर पकते हैं भले ही कितना जल सींचो। १४ दिसम्बर सन् ६१ का शुभ दिन कोल्हापुर में कुछ विशेष चहल-पहल भरा दिखा। चर्चा एक ही थी कि अक्कलकोट का कोई नवयुवक आ० श्री अनंतकीर्तिजी म० से अपना अनुगामी बना लेने के लिये मचल रहा है और यह चर्चा थी भी प्रशंसालायक । भवभोगों से भीत पवनकुमार पर कृपादृष्टि डालते हुए आचार्य श्री ने उसे मुनि दीक्षा प्रदान कर दी । श्रावकों ने इस निर्णय की पू० जयकीर्तिजी म० की जय हो के जयघोषों से अनुमोदन कर पुण्यबंध किया । श्रावक पार्श्वनाथ उर्फ बाबूराम जैन ने अपनी धर्मपत्नी-पद्मावती के साथ पच्चीस वर्षीय युवा पुत्र के इस साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा करके उसे गृह त्याग की अनुमति प्रदान कर श्रावक वर्ग पर भी महान् उपकार किया । अन्यथा ६ मई १९३५ को जन्मी इस विभूति की कृपा से यह अनाथ जगत वंचित ही रह जाता। दीक्षा ग्रहण करने के बाद आपने आगम का निरन्तर मनन करते हुए हिन्दी कन्नड़ और मराठी भाषा में ८ ग्रन्थों का निर्माण किया है । पद विहार करते हुए गुरु के आदेश से धर्म प्रभावना में तत्पर हैं। एक ही थी कि अक्का
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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