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________________ दिगम्बर जैन साधु ३९२ ] यद्यपि विद्याध्ययन की बहुत रुचि थी, परन्तु स्वास्थ्य के भय से प्रेम वश पिताजी ने उन्हें पानीपत से बाहर भेजना स्वीकार न किया । इतने पर भी उनका संकल्प न रुका और घर पर ही इलैक्ट्रिक व रेडियो इन्जीनियरिंग का पूरा कोर्स पढ़ डाला। इसी विषय का व्यापार प्रारम्भ किया और कलकत्ता एम० ई० एस० में बड़े जटिल जटिल कार्यो के ठेके लेकर वहां के इन्जीनियरों को चकित कर दिया। सन् १९५० में धार्मिक रुचि सहसा जागृत हुई। पं० रूपचन्दजी गार्गीय से इस प्रसंग में सहयोग व उत्साह प्राप्त करके उनके जीवन में धर्म तथा ज्ञान का संचार होने लगा। पहले से ही एकान्त प्रिय थे । अब विचार मग्न रहने लगे । व्यापार करते हुये भी अधिक समय शास्त्राध्ययन में जाने लगा । घर में किसी को पता न चला कि इनको क्या संकल्प जागृत हुआ है । सन् १९५२ में एक दिन अकसमात् बिना कहे.साधुओं के समागम के लिये प्रस्थान कर दिया। चार महीने के पश्चात् लौटे तो बिल्कुल बदल चुके थे । मन्दिर में ही रहने लगे । यद्यपि ज्ञान व वैराग्य दिनों दिन बढ़ रहा था परन्तु छोटे भाईयों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को, उनकी कर्तव्य निष्ट बुद्धि भूल न सकी। फलस्वरूप व्यापार में डगमगाते उनके पांव वहां स्थिर करने के लिये पुनः १९५४ में उन्हें कलकत्ता जाना पड़ा । निःस्वार्थ भाव से व्यापार में सहयोग देते थे, परन्तु पैसे से कोई सरोकार न था। सन् १९५७ में भगवान के समक्ष ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिये । १९५८ में सर्व प्रथम पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी की संगति के लिये ३ महीने ईशरी रहे । तत्पश्चात् कुछ भ्रमण किया और सन् १९६१ में ईशरी में ही आचार्य विमलसागरजी से क्षुल्लक दीक्षा धारण कर ली। एकान्त प्रिय होने के कारण तथा एक मात्र आत्म साधना के प्रति लक्ष्य व रति होने के कारण प्रारम्भ से ही अपनी योग्यताओं का प्रदर्शन करना वे विघ्न समझते रहे । गुप्त व गूढ़ साधना ही कल्याण मार्ग है, ऐसा उनका विश्वास है, फिर भी पुण्य की गन्ध छिपी न रह सकी । भ्रमर की भांति प्रेमी जन उनके निकट मंडराने लगे । बहुत बचने का प्रयत्न करते हुए भी किन्हीं के अतीव प्रेम पूर्ण आग्रह को वे ठुकरा न सके । फलस्वरूप मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, ईशरी, इन्दौर नसीराबाद, अजमेर, बनारस, रोहतक तथा एक दो और स्थानों में कुछ कुछ समय उन्हें रहना पड़ा, जिससे वहां की तथा आसपास की जनता पर बहुत प्रभाव पड़ा। __ यद्यपि लोगों का प्राग्रह बढ़ता रहा, परन्तु उन्होंने बल पूर्वक अपनी इस भ्रमण वृत्ति पर प्रतिबन्ध लगाकर अपनी एकान्त साधना की रक्षा करना ही कर्तव्य समझा और वे प्रायः पानीपत या रोहतक इन दो ही स्थानों में रहते हुये, अधिकतर ध्यान निमग्न रहने लगे।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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