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________________ ३४८ ] दिगम्बर जैन साधु आपने कक्षा चार तक शिक्षा पाई । छात्र जीवन में आप एकदम गम्भीर रहते थे ऐसा लगता था जैसे अनवरत किसी चिन्तन में लगे रहते हों और फिर . भोला बचपन सारल्य लिए जब यौवन उपवन में आया । असमर्थ हुई उलझाने में तब पुष्पों की चितवन माया । निष्काम भावना के आगे कलियों की गन्ध विलीन हुई। सांसारिक छलनाएं सबही जिनके समक्ष अव क्षीण हुई ।। ऐसे विभूति धारी महन्त को शत-शत सादर वन्दन है । . जिनके चरणों की रज कठोक सम्मुख नगण्य नंदन वन है ।। वाल हृदय पर जव सांसारिक छलनाऐं पाती तो चिकने घड़े में पानी की बूदों जैसी क्षणैकार्थ भी पराश्रय न पाती यह देखकर लोगों को आश्चर्य होता था कि इतनी छोटी उम्र और ऐसे गम्भीर विचार । बचपन गया, यौवन आया किन्तु उसमें बसन्ती वू नहीं आई। वासना ने आपके प्रशान्त मानस की ओर आँख उठाकर देखने तक की हिम्मत स्वप्न में भी नहीं की। आपने बालब्रह्मचारी का पुनीत और कठिन व्रत लेकर संसार की समस्त सुख सामग्री एवं भोगविलासों को नगण्य एवं सर्वथा उपेक्षित सिद्ध किया। आप पिता श्री के साथ व्यापार किया करते थे । धार्मिक प्रवृत्ति ने आपके हृदय में बचपन से ही अपना एक कोटर बना लिया था। उम्र के साथ साथ स्वाध्याय एवं धर्म प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ती गई। साथ ही संसार के प्रति उदासीनता का भाव भी पुष्ट होता चला गया। ___ सांसारिक चमक दमक बचपन में ही जिनके सामने पराजित हो चुकी थी उनको गार्हस्थ्य वन्धन भला कबतक बांध सकता है । वैराग्य भावना बढ़ती गई और आपने संवत् २०२४ 8 सितम्बर सन् ६७ में हमच पदमावत ( शिवभोगा ) मैसूर स्टेट में श्री १०८ प्राचार्य महावीरकीर्तिजी से मुनि दीक्षा ग्रहण की और संघ में सम्मिलित हो गये। तत्पश्चात् वही हुआ जो संघों में सदैव से होता आया है। प्राचार्यजी से ज्ञानार्जन कर सर्व साधारण को उनके बताए हुए मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान करना तथा उपदेश देना यही विषय अव आपके जीवन के पहलू हैं । अष्टमी और चतुर्दशी को आप व्रत रखते हैं। आपने चार रसों का त्याग किया है । आपकी कोति उज्ज्वल है । मुनि धर्म का पूर्ण पालन करते हुए आपने न जाने
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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