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________________ दिगम्बर जैन साधु [ ३१६ उनका शेष समय साहित्यसृजन में लगता है । आपकी भाषा अत्यन्त परिष्कृत, प्रांजल और प्रसादगुण युक्त है । आपके प्रवचनों में जैसे अमृत की मिठास घुली हो। एक सम्मोहन और आन्तरिक प्रभाव आपकी वाणी में है। विश्वधर्म की रूपरेखा, पिच्छी और कमंडलु, कल्याणमुनि और सम्राट सिकन्दर, "ईश्वर क्या और कहां है ? देव और पुरुषार्थ आदि ३० पुस्तकों की रचना की है । आपने भ० आदिनाथ पर विशेष शोध कार्य चल रहा है। आज धर्म को केवल मन्दिरों तक सीमित कर दिया है, परन्तु मुनि श्री के चरण जहां जहां जाते हैं एक नये तीर्थ की स्थापना हो जाया करती है। लाखों जैन बन्धुओं की अटूट भीड़ आपके दर्शनों और प्रवचनों के श्रवण हेतु उमड़ पड़ती है। जैन ग्रन्थों के अतिरिक्त गीता, वेद, स्मृति, पुराण, उपनिपद्, ग्रन्थसाहिब, मुस्लिम साहित्य एवं बाईबिल आदि का गहन अध्ययन किया है। आपने ३२ प्रकार की रामायणों का अवलोकन एवं अध्ययन कर समीक्षात्मक विवेचन किया है । श्रमण संस्कृति के तपःपूत साधक मुनिश्री का दैनिक जीवन बड़ा ही अनुशासित है और प्रत्येक कार्य ठीक समय से करते हैं । आपके पास ज्ञान का अथाह सागर जैसे भरा पड़ा है । आंग्ल-भाषा का अच्छा ज्ञान है और आवश्यकता पड़ने पर आप विदेशी विद्वानों को इसी भाषा के माध्यम में अपनी बात कहते हैं। ___आपने आकाशवाणी से जैन भजनों और गीतों के प्रसारण करने को प्रोत्साहन दिया और अनेकों बड़े काम किये । जैन नवयुवकों को अपने संस्कारों के प्रति हमेशा सचेष्ट करते रहते हैं । और अपनी वाणी द्वारा एक धर्म क्रान्ति का मन्त्र फूंक देते हैं । हजारों नास्तिक आपके प्रभाव से आस्तिक बन धर्म के प्रति श्रद्धालु बन गये। आप वर्ष में एक माह से अधिक मौन रहते हैं और वह समय आत्म चिन्तन एवं ग्रन्थों के .गम्भीर अध्ययन में लगाते हैं । हजारों विद्वानों, लेखकों और इतिहास विशारदों को जैन संस्कृति पर नयी बात लिखने, अन्वेषण करने और शोधात्मक निबन्ध लिखने के लिए प्रेरित करते हैं । पू० ऐलाचार्य श्री विद्यानन्दजी महाराज के निर्देशानुसार भ० वाहुबली स्वामी का १००० वां महामस्तिकाभिषेक अति ही धूमधाम से सम्पन्न हुवा । धर्मचक्र, मंगलकलश आप की ही देन हैं। धर्मस्थल पर भी प्रतिष्ठा आप के निर्देशन में हुई । आपके द्वारा जन कल्याण होता रहता है। आपकी प्रवचन शैली अभूतपूर्व है आप एक ऐसे युगीन आध्यात्मिक संत हैं जिन्होंने जैन दर्शन को विश्व-मंच पर लाकर खड़ा कर दिया और अहर्निश जिनकी साधना सिर्फ इस शाश्वत अहिंसा धर्म के उन्नयन हेतु चल रही है।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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