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________________ २६६ ] . दिगम्बर जैन साधु मुनि श्री समतासागरजी "जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा" जिसके आदर्श जीवन से दूसरों को अपने जीवन के लिए प्रेरणा मिले, जो कहने की अपेक्षा करके बताए, वास्तव में जीवन वह है । अन्यथा जीवन की घड़ियाँ बीतने में समय यों ही निकलता जाता है। विद्वत्ता और चरित्र परस्पर पूरक हैं । इनको सुदृढ़ बनाने के लिए श्रद्धा इनकी पृष्ठभूमि है। इन तीनों का सामंजस्य हो जीवन का अन्तिम लक्ष्य रत्नत्रय बन जाता है। इस रत्नत्रय का भव भवान्तरों तक सतत् साधन ही एक दिन साधक को अपने चरम लक्ष्य तक पहुंचाता है-वह चरम लक्ष्य है मुक्ति, निर्वाण या सिद्ध अवस्था। पण्डित महेन्द्रकुमारजी पाटनी जैसे बाहर रहे उसी तरह सदैव अन्तरङ्ग में भी । जीवन में जो सोचा उसे जीवन में उतारा । अवस्था के साथ साथ आत्महित में प्रवृत्त रहे । आत्मा की अन्तरंग आवाज को बाहर साकार रूप देने में सदैव कटिबद्ध रहे । जीवन के प्रारम्भ में सामान्य और उसके छोर पर जीवन को सार्थकता या कल्याण को ओर प्रवृत्त करना-यह जीवन की सफलता के लिए बड़ी महत्त्वपूर्ण बात रही है। परमश्रद्धेय धर्मवीर सेठ टीकमचन्दजी सोनी जब कभी हवेली से घीमन्डी आ जाते थे तब सवारी पाने में विलम्ब होने पर श्री महावीर दिगम्बर जैन विद्यालय ( वर्तमान में राजकीय टीकमचन्द जैन हायर सैकण्डरी स्कूल ) में पधारते और विद्यार्थियों से धर्म सम्बन्धी प्रश्न पूछ कर उनके लिए तत्काल पारितोषिक घोषित कर देते थे। प्रधानाध्यापकजी उनसे निवेदन करते थे कि इन बालकों से गणित, अंग्रेजी आदि विषय भी पूछे जाने चाहिए तो सेठ सा० बड़ी सहजता से कहते थे कि ये सब जीविका साधन के विषय हैं । बालक परिश्रम स्वतः करते रहेंगे। विद्यालय की स्थापना का उद्देश्य है धर्मात्मा, चरित्रवान, विद्वान् बनाना-वह पूरा हो रहा है या नहीं, मैं यही देखना चाहता हूं । यदि यहाँ से एक भी छात्र ऐसा निकल गया तो मैं समझूगा कि मेरा और मेरे विद्यालय का ध्येय पूरा हो गया । मुझे यह लिखते हुए बड़े गौरव का अनुभव हो रहा है कि सेठ सा० की
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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