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________________ दिगम्बर जैन साधु [ २४५ आपके दोनों कुल सम्पन्न और ऐश्वर्यशाली थे किसी भी प्रकार की चिंता नहीं थी। आपने अपने कर कमलों द्वारा दान भी खूब दिया । आपने चालीस हजार की धनराशि पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में तथा पांच हजार दीक्षा के शुभावसर पर दान किए थे। इसके अलावा और भी हजारों रुपयों का दान आपने किया । अनेकों जगह जिनेन्द्र प्रभु की मूर्तियां स्थापित कराई। श्री महावीरजी क्षेत्र में भगवान महावीर की ३ फुट उतुग प्रतिमा स्थापित कराई। ___ इस प्रकार धन वैभव से सम्पन्न, प्रतिष्ठा और मान-मर्यादा में उत्तम, दान में शिरोमणि होती हुई भी आपने इन सब सांसारिक वैभवों को क्षणभंगुर समझा। आप बाल्यकाल से ही इस असार संसार से उदासीन थीं और पति के स्वर्गारोहण हो जाने से आपने अपने अन्तर में आत्म कल्याण की भावना को प्रोत्साहन दिया। फलतः उदयपुर में हुए आचार्यवर चारित्र चक्रवर्ती श्री शान्तिसागरजी महाराज के चातुर्मास के शुभावसर पर प्राचार्य श्री के सद्उपदेशों से प्रभावित होकर ७ वीं प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिए, संघ में रहकर आपने अनेकों वर्षों तक संघ की तन मन धन से भक्ति पूर्वक सेवा की । इतने पर भी प्रापको सन्तोष न हुआ फलता प्राचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज की सम्मति से प्राचार्य वीरसागरजी महाराज से नागौर नगर में मंगसिर शुक्ला षष्ठी शुक्रवार विक्रम सं० २००६ को क्षल्लिका की दीक्षा ग्रहण कर ली। आचार्य श्री ने आपका नाम बदलकर श्री 'अनन्तमतीजो' रखा। माता अनन्तमतीजी क्षुल्लिका की दीक्षा के वाद अनेक परिषहों को सहन कर कठोर व्रतों का पालन करने लगी और आत्म कल्याण की ओर तत्पर हो उन तप साधना के साथ कठिन व्रतों का अभ्यास करने लगीं । आपको इस आत्म-कल्याण की कठोर साधना को देखकर आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज ने कार्तिक सुदी एकादशी सं० २०२२ को महाव्रतों के पालने का उपदेश व आज्ञा देते हुये, हजारों नर-नारियों के बीच आपको खुरई (सागर) में "प्रायिका" की दीक्षा दे दी। इस प्रकार प्रारम्भ से आप धार्मिक प्रभावना व आत्म-कल्याण हेतु तप साधना में तत्पर व अग्रसर हैं। आपको शतशः नमन ।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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