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________________ दिगम्बर जैन साधु [ १९१ जब आप गृह कार्य में सुयोग्य होती हुई लगभग २० वर्ष की हुई तब आपका पाणिग्रहण सोलापुर अन्तर्गत मोहर ग्राम में श्रीमान् सेठ मोतीलालजी के लघु पुत्र श्री हीरालालजी के साथ सम्पन्न हो गया। आपके स्वसुर अच्छे सम्पन्न परिवार के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे तथा थोक व्यापार किया करते थे । आपके पति श्री हीरालालजी अपने चार भाइयों के बीच सबसे छोटे थे। ____ आपकी शादी हुए केवल आठ वर्ष हो व्यतीत हुए कि आपके ऊपर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा और आपको वैधव्य धारण करना पड़ा । गार्हस्थ जीवन की अल्प अवधि में आपको एक मात्र पुत्री चि० विद्युल्लता' का ही सौभाग्य मिल सका । काल की इस दुखःदायनी विचित्रता को देखकर आपके अन्तर में संसार की नश्वरता के प्रति विराग हुआ और अापने कालिजा आश्रम में अपना आश्रय लिया। इस आश्रम में आकर आपने धार्मिक शिक्षा का गहन अध्ययन और मनन किया, पश्चात् एक सुयोग्य विदुषी महिला बनकर इसी आश्रम में कुछ वर्षों तक अध्यापन का भी कार्य किया। अपने जीवन के १६ वर्ष कालिजा पाश्रम में हो अध्ययन और अध्यापन में व्यतीत किए। परम तपस्वी आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी के सद्उपदेशों ने भी आपको वैरागी बना दिया। जव चारित्रचक्रवर्ती प्राचार्य श्री शान्तिसागरजी का ससंघ चातुर्मास कालिंजा में हुआ तब आपने प्राचार्य वीरसागरजी महाराज से सातवीं प्रतिमा तक के व्रत अंगीकार किए थे, उस समय आपकी वय ३५ वर्ष की थी। इस प्रकार आपने सप्तम प्रतिमा तक के व्रतों को १५-१६ वर्ष तक पालन कर अपनी आत्मा को निर्मल और निर्मोही बना लिया। "प्रायः यह पाया जाता है कि पिता के गुण पुत्र में और माता के गुण सुता में आते हैं।" यही वात आपकी एक मात्र लाडली प्रिय पुत्री विद्युल्लता में पूर्णतया चरितार्थ होना पाई गई। विरागिनी माँ की प्रज्ञा, आगम के प्रति गहन श्रद्धा, और परम वैराग्य का पूरा पूरा प्रभाव लाडली पुत्री के ऊपर पड़ा है। शोल शिरोमणि वहिन विद्युल्लता आजकल प्रधानाध्यापिका व अधिष्ठात्री के रूप में सप्तम् प्रतिमा तक के व्रतों का पालन करती हुई सोलापुर के आश्रम में है। इनका हृदय हमेशा वैराग्य की ओर झुका रहता है, और यही कारण है कि इनकी भी अभिलाषा महाव्रतों को ग्रहण करने की है । विद्युल्लता जैसी सुयोग्य शीलरूपा सुपुत्री को पाकर आपका मातृत्त्व भी धन्य हो गया। ‘कार्तिक शुक्ला पञ्चमी विक्रम सम्वत् २०१३ में परम पूज्य आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज से जयपुर खानियां में चातुर्मास के शुभावसर पर आपने क्षुल्लिका की दीक्षा ग्रहण कर ली। आचार्य श्री ने पापका दीक्षित नाम श्री चन्द्रमती रखा।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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