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________________ 1. १३० ] दिगम्बर जैन नाधु मुनिश्री प्रादिसागरजी महाराज आपका जन्म खण्डेलवाल जातीय अजमेरा गोत्र हुवा था आप मूलत: दाँता (सीकर) राजस्थान के निवासी थे । आपकी दीक्षा प्रतापगढ़ में वि० सं० १६६० फाल्गुन सुदी ग्यारस को हुई थी । आप आचार्य वीरसागरजी महाराज के प्रथम सुशिष्य थे । छोटों के प्रति वात्सल्य भाव और बड़ों के प्रति विनम्रता का व्यवहार आपका स्वभाव था । आपकी गुरु भक्ति अद्वितीय रही । आप हमेशा कहा करते थे कि वड़ा बनने की चेष्टा मत करो, बड़ा बनना सरल नहीं है । आप निरन्तर आध्यात्मिक ग्रन्थों का स्वाध्याय कर उनका सार प्राप्त कर आत्मा का सच्चा अनुभव भी करते थे । जब भीषण ज्वर से आपका शरीर क्षीण हो गया और शरीर में तीव्र वेदना थी, तब भी आप ध्यान में लीन परमशान्त और गम्भीर थे । पू० महाराजश्री की भावना का सार उनको प्राप्त हुवा | प्रातः काल चार वजे स्वयमेव उठकर पद्मासन लगाकर बैठ गये, जिससे ऐसा प्रतीत होता था मानो निर्भीक होकर यमराज का सामना कर रहे हों । आपने भव भवान्तरसे प्राणियों के पीछे लगने वाली ममता की जंजीर को समता रूपी शस्त्र ने क्षीण कर दिया और यमनागक संयम को स्वीकार किया । ख्याति, लाभ, पूजा के लिये जिसकी भावना है वह समाधिमरण नहीं कर सकता । परन्तु आपने हंसते २ णमोकार मंत्र का जाप्य करते हुए अन्तः समाधि में लीन होकर गुरुवर्य १०८ आचार्य वीरसागरजी के सान्निध्य में अनन्तानन्त सिद्धों की सिद्धि के क्षेत्र परमपावन सम्मेदशिखर पर भौतिक शरीर का परित्याग कर देव पद प्राप्त किया । सुमेरु पर्वत की दृढ़ता, सागर की गम्भीरता, वसुधा की क्षमाशीलता, व्यामोह की विशालता, शशि की गीतलता और नवनीन की कोमलता, जिसके समक्ष सदैव श्रद्धा से नत रहती थी, ऐसी अध्यात्म मूर्ति थे श्री आदि सागर महाराज ।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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