SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुनि श्री चन्द्रकोतिजी महाराज काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादि कीटके । एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः ॥ सोमदेवाचार्य ।। भावार्थ-इस कलिकाल में भी, जब कि लोगों के चित्त में चंचलता है, शरीर अन्न का कीड़ा है, जिनेन्द्र देव के वीतरागी नग्न स्वरूप को धारण करने वाले महापुरुष मौजूद हैं जो कि एक पाश्चर्य ही है। ki भूतपूर्व राजपूताना वर्तमान नाम राजस्थान प्रदेश के अन्तर्गत अलवर नगर में जो कि वर्षों एक स्वतन्त्र रियासत थी अग्रवाल जातीय दिगम्बर जैन धर्मावलम्बी लाला सेढ़मलजी निवास करते थे। आपके ४ भाई और थे, जिनके नाम जवाहर. लालजी छोटेलालजी गुलाबचन्दजी और कालूरामजी हैं । सेढ़मलजी की धर्मपत्नी का नाम श्री रुक्मिणी देवी था। इन पांच भाइयों में केवल एक सेढ़मलजी के ही पुत्र जन्म हुआ। पौष कृष्णा नवमी संवत् १९५० के शुभ दिन में यह घटना हुई । सारे परिवार में आनन्द छा गया क्योंकि एक अपूर्व लाभ हुआ था। नवजात शिशु का नाम श्री कनकमल रक्खा गया और बड़े प्यार से इन्हें पाला पोसा गया। कनकमलजी को साधारण शिक्षा ही मिली । अधिक शिक्षा यों न मिल सकी कि वे सारे परिवार के प्रिय थे । लाड प्यार में वचपन बोता । बालक कनकमल बचपन से ही धर्म साधन में भी लीन रहते थे। बचपन से ही सारा समय धर्म श्रवण, पूजा और स्वाध्याय आदि में लगाये रहते थे। विवाह के लिए भी आग्रह आप से किया गया परन्तु आपने उस प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया । सदैव धर्म कार्य में लीन रहना और भरत चक्रवर्ती की तरह घर में रहते हुये भी उससे उदास रहना इनको चर्या थी । दैवयोग से पूज्यपाद आचार्य परमेष्ठी श्री १०८ श्रीशांतिसागरजी महाराज का संघ अलवर के पास तिजारा नगर में आया। आप वहां पहुंचकर संघ को अलवर बड़े अनुरोध से
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy