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________________ दिगम्बर जैन सांधु [ ७१ इन्दौर में सरसेठ हुकमीचन्दजी ने श्राचार्यश्री को हथकड़ी पहनाने की पूर्ण कोशिश की पर सेठ सा० की कोशिश व्यर्थ गई तथा प्राचार्यश्री की सिंहवृत्ति से सरकारी वर्ग के विशिष्ट लोग आपके चरणों में नतमस्तक हो गए तथा सेठ जी के मायाजाल का भण्डा फूट गया । 1 अनेक क्षेत्रों और स्थानों में विहार करते हुए मुनिश्री संघ सहित संवत् २००१ फाल्गुन सुदी अष्टमी के सायंकाल बावनगजा में पधारे । उस समय आपके इस भौतिक शरीर को ज्वर के ar ने पकड़ लिया था । इसलिये श्रापका शरीर यद्यपि दुर्बल हो गया था फिर भी मानसिक बल पूर्व था। बड़वानी सिद्धक्षेत्र में श्री चांदमल धन्नालाल की ओर से मानस्तम्भ प्रतिष्ठा थी । आपने रुग्णावस्था में भी अपने हाथ से प्रतिष्ठा कराई । पूज्य गुरुदेव की शारीरिक स्थिति अधिकाधिक निर्बल होती गई तो भी महाराजश्री ने फाल्गुन सुदी १२ को फरमाया कि मुझे चूलगिरि के दर्शन कराओ । लोगों ने कहा : "महाराज ! शरीर स्वस्थ होने पर पहाड़ पर जाना उचित होगा, गुरुदेव बोले "शरीर का भरोसा नहीं । यदि शरीर ही नहीं रहा तो हमारे दर्शन रह जायेंगे ।" महाराज श्री दर्शनार्थ पर्वत पर पधारे । उस समय उन्हें १०५ डिग्री ज्वर था, निर्बलता भी काफी थी । महाराजश्री ने बड़े उत्साह और हर्ष पूर्वक दर्शन किये । संन्यास भी ग्रहण कर लिया । अर्थात् अन्न का त्याग कर दिया । फाल्गुन शुक्ला १३ को मात्र जल लिया । अन्तिम सन्देश : त्रयोदशी को ही अन्न जल त्याग कर संन्यास धारण करते समय आपने पूछा था कि काकी पूर्णता परसों ही है न ? अमर है । लोगों के हाँ करने पर महाराज ने फरमाया "सब लोग धर्म का सेवन न भूलें । आत्मा "9 फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी को शक्ति और भी क्षीण हो गई । डाक्टरों ने महाराजश्री को देखकर कहा कि महाराज का हृदय बड़ा दृढ़ है । औषधि लेने पर तो शर्तिया स्वस्थ हो सकते हैं परन्तु गुरुदेव कैसी औषधि लेते ? उनके पास तो मुक्ति में पहुंचाने वाली परम वीतरागतारूप आदर्श महौषधि थी ।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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